मेरे गांव का वह पुराना घर आज भी किसी हवेली से कम नहीं लगता. वह घर कभी एकदम नया दिखता होगा, अवसरों पर क्या खूब सजता होगा.
मेरे गांव में वह घर वीरान पड़ा है. बनाने वालों ने क्या-क्या सपने देखे होंगे. सारा घर एक छत के नीचे, एक ही आंगन.
कहीं बच्चों की किलकारियां, उस कमरे में वे, इस कमरे में हम, वह बड़ा होगा तो उस कोने वाले कमरे में, जैसी बातें.
लेकिन, यह अंदेशा किसी को भी नहीं था कि कभी ईंट ही ईंटों से सवाल करेंगीं. घर का एक कोना दूसरे कोने से मुंह छिपाएगा.
घर के लोग बड़े हो गए हैं. घर घर ना रहा, बल्कि तपती धूप जिसे ना जला सकी वह भरी बरसात में जल रहा है.
क्या पता रातों में सिसकियों निकलती होंगी हवेली से. लेकिन, उन्हें सुनेगा कौन? हर कोई अपनी ही धुन में मगन है.
अपने गांव के घर को मैंने कई बार सजते हुए देखा है, लेकिन यह याद नहीं कि आख़िरी बार कब देखा था.
गांव के घर से रिश्ता अब शादी और श्राद्ध का ही रह गया है
नंगी ईंटों को ढकने वाला भी कोई नहीं. वक़्त अहिस्ता-अहिस्ता तोड़ता है. आज घर टूटा है कल घरवाले.
हर कोई ज़िंदगी में कभी ना कभी टूटता है, ये तो एक घर का क़िस्सा है, मेरे गांव के घर की कहानी.
किराए की ज़िंदगी में सोच भी किराए की हो गई है. घंटे का पैसा जोड़ने वाले सालों का हिसाब भूल गए है. यह कैसी विडंबना है?
क्या होगा जब वही घर कल याद आएगा? ज़िंदगी ख़त्म होने से पहले आइना दिखाती है. तब सब कुछ साफ़ नज़र आता है, टूट जाने के बाद.
मिथिलेश तिवारी, नॉएडा