इंसुलिन (insulin) पर एक ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि खोज किए जाने के एक शताब्दी बाद भी यह जीवनरक्षक औषधि (lifesaving medicine) बहुत से लोगों की पहुंच से बाहर है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट – Keeping the 100-year-old promise – making insulin access universal – इंसुलिन की खोज की एक सदी पूरी होने के अवसर पर प्रकाशित की गई है.
आखिर वह क्या बाधाएं हैं जो इस जीवनरक्षक औषधि की उपलब्धता के रास्ते में आड़े आ रही हैं?
इनमें प्रमुख हैं – उच्च क़ीमतें, मानव इंसुलिन की कम उपलब्धता, एक ऐसा बाज़ार जिस पर केवल कुछ ही उत्पादकों का दबदबा है, और कमज़ोर स्वास्थ्य व्यवस्थाएं.
मुनाफ़ा ही है प्राथमिकता
इंसुलिन को डायबटीज़ (diabetes) के इलाज में अहम बुनियाद माना जाता है. ज़रुरत है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन इस औषधि के निर्माताओं के साथ मिलकर इंसुलिन की उपलब्धता हर व्यक्ति के लिए सुनिश्चित करे जिसे इसकी ज़रूरत है.
ज्ञात हो कि जिन वैज्ञानिकों ने 100 वर्ष पहले इंसुलिन का आविष्कार किया, उन्होंने इससे कोई मुनाफ़ा कमाना मंज़ूर नहीं किया. तब इसका बौद्धिक सम्पदा अधिकार केवल एक डॉलर में बेच दिया गया.
डायबटीज़ को एक ऐसी बीमारी कहा जाता है जो रक्त में शर्करा यानि शुगर के बढ़े स्तरों के कारण होती है. दीर्घकाल में ये अवस्था हृदय, रक्त धमनियों, आंखों, गुर्दों और तंत्रिकाओं को गम्भीर नुक़सान पहुंचाती है.
दुनियाभर में करोड़ों वंचित
इस बीमारी के दो रूप हैं. टाइप 1 डायबटीज़, जिसे अतीत में ‘अवयस्क डायबटीज़’ भी कहा जाता था और ये आमतौर पर बच्चों व किशोरों में होती है. ये बहुत लम्बे समय तक चलने वाली एक बीमारी है जिसके कारण, शरीर में या तो बहुत कम या फिर बिल्कुल भी इंसुलिन नहीं बनती है.
दुनिया भर में लगभग 90 लाख लोग टाइप 1 डायबटीज़ के साथ जीवन जी रहे हैं. इंसुलिन का सेवन करने से ये बीमारी, उनके लिए एक ऐसी स्वास्थ्य अवस्था में तब्दील हो जाती है जिसके साथ जीवन जिया जा सकता है.
दूसरा रूप है डायबटीज़ 2, जो बहुत आम मानी जाती है और ये आमतौर पर वयस्कों में पाई जाती है. ये तब होती है जब शरीर में इंसुलिन के लिए प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो जाती है या फिर शरीर में इसकी समुचित मात्रा का उत्पादन नहीं होता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि दुनिया भर में छह करोड़ से भी ज़्यादा लोग टाइप 2 डायबटीज़ के साथ जीवन जी रहे हैं. इंसुलिन के सेवन से, उनके गुर्दे नाकाम होने, आंखों की रौशनी चले जाने और शरीर का कोई अंग भंग करने का जोखिम कम हो जाता है.
गौर करने की ज़रुरत यह है कि जितने लोगों को इंसुलिन की ज़रूरत है, उनमें से लगभग आधी संख्या यानी दो में से एक मरीज़ को इंसुलिन उपलब्ध नहीं होती है.
आंकड़े बताते हैं कि निम्न व मध्यम आय वाले देशों में डायबटीज़ तेजी से बढ़ रहा है, मगर उन देशों में, इंसुलिन की उपलब्धतता इस बीमारी के बढ़ते बोझ की रफ़्तार के साथ ही नहीं बढ़ी है.
इंसुलिन की क़िल्लत को दूर करना
कोशिश होनी चाहिए की मानव इंसुलिन का उत्पादन व आपूर्ति बढ़े. साथ ही इस औषधि के उत्पादन का दायरा इस तरह बढ़े कि इसमें प्रतिस्पर्धा का चलन बढ़े. इससे क़ीमतें कम होंगी.
यूएन स्वास्थ्य एजेंसी की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि वैश्विक बाज़ार, कम लागत में तैयार होने वाली मानव इंसुलिन के उत्पादन से हटकर ज़्यादा महंगी सिन्थेटिक इंसुलिन के उत्पादन में लग गए हैं. यह एक खतरनाक सूचक है.
अभी तो इंसुलिन की क़ीमतों पर नियंत्रण स्थापित होना चाहिए. इसकी उपलब्धता बेहतर होनी चाहिए. साथ ही, मूल्य पारदर्शिता सुनिश्चित करनी चाहिए. स्थानीय उत्पादकों की क्षमता भी बढ़नी चाहिए जिससे इंसुलिन की उपलब्धता बेहतर बनाई जा सके.