मैं जिस गांव का हूं उसका नाम गोढवा (Godhwa or Gorhwa village) है. बिहार के पूर्वी चंपारण (East Champaran) जिले के मुख्यालय मोतिहारी (Motihari) से मात्र पांच किलोमीटर पूरब में है मेरा यह गांव. बेहतरीन सड़क और उसके दोनों बगल मनोहारी और नयनाकर्षक हरियाली आपको और कहां देखने को मिलेगी.
इसी गांव के एक सामान्य से परिवार में जन्म लेकर यहीं के एक विद्यालय से पढ़ाई कर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय तक का सफर तय किया है. गोढवा गांव का प्रताप देखिये कि इसने मुझे संसद भवन में बिना रोक-टोक आने-जाने के लायक बनाया.
इस दौरान लोकसभा टेलीविजन में मैंने दस साल अपनी सेवा दी. फलःस्वरूप देश के महत्वपूर्ण जनप्रतिनिधियों, और सामाजिक, राजनीति, आर्थिक और सांस्कृतिक विषयों के विशेष प्रतिनिधियों से मेरा लगाव बढ़ा जो निरंतर बना हुआ है.
गोढवा गांव की जनसंख्या लगभग 15,000 के करीब है और यह पूर्णतया कृषि पर निर्भर गांव है. यहां के लोग बड़े मेहनती हैं और यही वजह है कि यह धनधान्य से परिपूर्ण गांव है.
पिछले एक दशक से गोढवा के लोगों में शिक्षा के प्रति ललक बढ़ी है जो पहले पूर्णतया नदारद थी. लोगों को पहले लगता था कि बिना घूस दिए नौकरी तो होनी नहीं इसलिए बच्चों को क्यों पढ़ना. लेकिन यह अवधारणा अब समाप्त हो चुकी है. लोगों में बच्चों को पढ़ाने की प्रतियोगिता दिख रही है.
मेरे गांव के लगभग दर्जन भर बच्चे एम्स (AIIMS) से लेकर विदेशों तक में पढ़कर डॉक्टर (doctor) बनने की ओर अग्रसर हैं. इतने ही संख्या में इंजिनियर (engineer) भी होंगें.
दो-तीन दशक पहले सरकारी शिक्षक के नाम पर मात्र तीन शिक्षक थे लेकिन अब इनकी संख्या सैकड़ों में है. गोढवा गांव में एक इंटर कॉलेज के साथ छह अन्य सरकारी स्कूल हैं तो तीन प्राइवेट स्कूल के साथ दर्जन भर कोचिंग संस्थान (coaching institute) भी हैं.
मेरे गांव की सबसे बड़ी विशेषता है फल और सब्जियों का जबरदस्त उत्पादन. गोढवा के बढ़हरी, मालभोग, गौरिया, मिर्चायिया, व सिंघापुरी तथा बतीसा जैसे केले बहुत प्रसिद्द हैं.
यहां सभी तरह की सब्जियों का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है. मोतिहारी चीनी मिल (Motihari sugar mill) बंद होने के कारण लोगों ने गन्ने का उत्पादन बंद कर दिया है तो बदले में हजारों बीघा में आम और लीची के पेड़ लगाये जा चुके हैं. अब तो अमरुद, निम्बू और फूलों की भी जबरदस्त खेती की जा रही है. अर्थात नकदी फसलों का उत्पादन ही ज्यादा है.
गोढवा गांव राजनीतिक रूप से भी जागृत है जहां भारतीय जनता पार्टी (BJP) और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सहित अन्य दलों के ख़ेमे आपको देखने को मिलेंगे, लेकिन बिना किसी कड़वाहट के.
गांव के मुख्य चौक पर अलग ही नज़ारा दिखता है जहां लगभग 300 दुकानें हैं तथा दर्जनों छोटे-छोटे शौपिंग काम्प्लेक्स हैं. गांव के मुख्य द्वार पर एक विशाल स्थायी तोरणद्वार है जिसमें अलग-अलग देवी-देवताओं की मूर्तियां लगी हैं.
आपको यह बताना जरूरी है कि मेरे गांव के किसान बिंदास और बेफिक्रे हैं. ये अपनी आर्थिकी सुधरने के लिए सरकारी नौकरी का रोना नहीं रोते बल्कि अपना भीष्म वाक्य दोहराते रहते हैं – “नौकरी करो सरकारी नहीं तो रोप दो तरकारी”.
- राजेश्वर जयसवाल, गोढवा, बिहार