संयुक्त राष्ट्र ने सर्वाधिक खुशहाल देशों की वैश्विक सूची जारी की है, जिसमें हमारे देश को 122वें पायदान पर रखा गया है. खुशहाली के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल, चीन, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पिछड़ गया है.
‘द वर्ल्ड हैप्पिनेस रिपोर्ट’ से पता चलता है कि आतंकवाद से त्रस्त पाकिस्तान और गरीबी से जूझ रहा नेपाल इस सूचकांक में भारत से बेहतर स्थिति में हैं. गौरतलब है कि पिछले वर्ष हम 118वें स्थान पर थे और ताज़ा स्थिति यह है कि भारत नीचे सरक आया है.
नार्वे ने डेनमार्क को पीछे धकेलते हुए सर्वाधिक खुश देशों में पहला स्थान प्राप्त किया है. इस जानकारी को पढ़ आप अपने आस पास देखें. क्या आपको परिवार के लोगों की देखभाल, जीवन के निर्णय लेने की आजादी, मिलनसारता, अच्छे शासन, ईमानदारी, स्वास्थ्य और आय के स्तर में सुधार होता नज़र आ रहा है?
हम तो कमजोर वर्ग की मुश्किलें और आय की असमानता घटाने के मौके भी खो रहे हैं. इसमें कोई दो मत नहीं कि देश में एक ओर प्रति व्यक्ति आय और राष्ट्रीय आय बढ़ रही है, करोड़पतियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है लेकिन वहीं समाज के कमजोर वर्ग की मुश्किलें भी बढ़ती जा रही हैं.
जाहिर है, हमारे देश की रैंकिंग अच्छी नहीं होगी. वार्षिक विश्व खुशहाली रपट में जिन कारकों से 155 देशों को मापा गया, उनमें गैरबराबरी, जीवन प्रत्याशा, प्रति व्यक्ति जीडीपी, लोक विश्वास (यानी भ्रष्टाचार मुक्त सरकार और व्यापार), और सामाजिक समर्थन जैसे कारक शामिल रहे.
यह चिंताजनक है कि भारत में धन कुबेरों की संख्या बढ़ती जा रही है तो दूसरी ओर अति सीमित आमदनी में गुजारा करने वाले करोड़ों लोगों की स्थिति दयनीय बनी हुई है. उदाहरण के लिए सरकारी स्कूलों और चिकित्सालयों की तुलना प्राइवेट स्कूलों और अस्पतालों से की जा सकती है, जहां देश के हर वर्ग की हालत देखी जा सकती है.
अगले दो दशक में देश की विकास दर आठ से नौ फीसदी तक हो जाएगी और हमारी अर्थव्यवस्था डेढ़ गुना बड़ी हो जाएगी. लेकिन क्या इसे ही देश की खुशहाली का पैमाना माना जाएगा?
जरूरत है विकास, विविधता और लोकतंत्र को सही ढ़ंग से समझने की. आज भूटान जैसे देश विकास को खुशहाली और संतोष से जोड़ रहे हैं तो हम ऐसा क्यों नहीं कर रहे?
जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति के जीवन में खुशहाली नहीं आती, तब तक विकास बेमानी है. कोशिश उस व्यक्ति तक भोजन पहुंचाने की होनी चाहिए जो भूखा सो रहा है.