डा. धर्मवीर भारती के लेखन का अपना असर है – वह चाहे कविता हो या उपन्यास, कहानी हो या नाटक, डायरी-पत्र हो या टिप्पणी-लेख. सबमें उनकी अपनी छाप है, आप उससे सहमत हों या न हों मगर प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे, बता रही हैं विभा सिंह.
डॉ. धर्मवीर भारती (25 दिसंबर, 1926 – 4 सितंबर, 1997) आधुनिक हिन्दी साहित्य के उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम साहित्य की लगभग सभी विधाओं को बनाया.
एक तरफ ‘धर्मयुग’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया तो दूसरी तरफ वे एक ‘रोमानी’ कवि के रूप में भी चर्चित रहे.
निःसंदेह ‘प्रेम’ उनके साहित्य का मूल तत्व है और उसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अनेक रुपों में की है.
अगर उनके रचना विकास को देखें तो पता चलता है कि वे नई चेतना की अभिव्यक्ति के लिए अग्रसर थे.
तभी वे ‘दूसरा सप्तक’, ‘ठंडा-लोहा’ से चलकर ‘अंधयुग’ और ‘गुनाहों का देवता’ से चलकर ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ और ‘बंदगली का आखिरी मकान’ तक पहुंचे.
वे जितनी तन्मयता से अपनी काव्यात्मक कृत्तियों में रमे उतनी ही विविधता हमें उनकी गद्यात्मक कृत्तियों में मिलती है.
अपने उत्कर्ष काल में उन्होंने हिन्दी में प्रेम-कविता को एक नई ऊंचाई दी तो द्वितीय-विश्वयुद्ध से उत्पन्न त्रासदी को भी गहराई से महसूस किया.
‘अंधयुग’ और ‘कनुप्रिया’ उनकी ऐसी कृतियां हैं जिनके संबंध में भारती ने कहा – “मैं संतुष्ट हूँ कि ‘कनुप्रिया’ और ‘अंधयुग’ के जरिये मैं वह सब कह सका जो कहना चाहता था.”
डा. भारती ने अपने समय की चेतना से प्रभावित होकर मानव समाज की विभिन्न स्थितियों, उसकी नियति और परम्पराओं को नए परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की.
निर्भीक लेखन में अगर उनके पिता की शिक्षा का प्रभाव दिखता है तो उनके व्यक्तित्व निर्माण में साहित्यिक संस्था ‘परिमल’, उनकी साहित्यिक मित्र-मंडली और इलाहाबादी साहित्यिक परिवेश का भी बड़ा प्रभाव दिखाई पड़ता है.
वे सुभाष चन्द्र बोस के बड़े प्रशंसक थे और अपने नाम से ‘वर्मा’ हटाकर धर्मवीर ‘भारतीय’ लिखा करते थे, जो साहित्य संपर्क में आकर धर्मवीर ‘भारती’ हो गया.
डा. भारती ने अपने युग की विषमता को बड़ी सूक्ष्मता से ग्रहण किया. वे अपने समसामयिक राजनीतिक परिस्थितियों से भलीभांति परिचित थे.
उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त विविध पाखंडों, प्रपंचों तथा समाज में फैले विविध अंतर्विरोधें को बड़े निकट से देखा ही नहीं भोगा भी था.
डा. भारती ने जहां आर्थिक शोषण की विडंबना, पूंजीपतियों की चाल, उस युग की त्रासदी को खुलकर व्यक्त किया वहीं उनका आक्रोश शोषित वर्ग के प्रति भी रहा कि क्यों वे मूक बन इस शोषण का शिकार होते हैं.
उनके अनुसार व्यक्ति का “स्वातंत्र्य, उसकी संकल्प शक्ति, उसका विवेकपूर्ण मूल्यवान आचरण ही प्रगति के स्वप्न को सार्थक बना सकता है.”