उर्दू सुनते ही भारत के सोंधी मिट्ठी की सुगंध का एहसास होने लगता है. भारत में जन्मी, पली-बढ़ी उर्दू विश्व के अनेक देशों में लोकप्रिय हुई.
भारतीय सभ्यता संस्कृति एवं मार्यादाओं से इसने अपने दामन का बेल-बुटा सजाया. जीवन के प्रत्येक रंगो में रच-बस कर साहित्य की दुनिया में अपना अमिट छाप छोडा़.
भारतीय सिनेमा जगत के सौ साल के सफर में उर्दू ने अपना बहुमुल्य योगदान देकर फिल्मों को अरबों की इंडस्ट्री बनाया. विद्युत गति से विकास करते व्यवसायिक प्रतिष्ठानों ने भी अपनी मार्केटिंग हेतु उर्दू को गले लगाया.
हंसती मुस्कुराती उर्दू ने ऐड एजेंसियों का भी भरपूर साथ दिया. मीडिया ने जीवन के तहदार गुत्थियों को सुलझाने हेतु प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रानिक तक हर स्तर पर उर्दू का प्रयोग किया जिससे जन आकांक्षाओं का विश्लेषण एवं समस्याओं के समाधान का मार्ग सरलता पुर्वक व्यक्त हो पाया.
पूरे देश में लोगों की बोल-चाल में उर्दू का प्रयोग है. लेकिन, उतार-चढ़ाव प्रकृति का नियम है. उर्दू भी इससे अछूती नहीं रही.
जब तक पं॰ दयाशंकर नसीम, पंडित आनन्द नरायण मुल्ला, मुंशी नवल किशोर जैसे सैकड़ों देश भक्तों की छत्र-छाया उर्दू पर रही तब तक इनकी बेमिसाल उर्दू साहित्य सेवा, मुद्रण एवं प्रकाशन से बहुमुल्य योगदान मिलता रहा.
फलस्वरुप उर्दू लिपि अमर हो गई. जैसे-जैसे दिन बितता गया वैसे-वैसे उर्दू का विकास हुआ. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रखर सिपाही उर्दू ने उंच-नीच तथा भेद-भाव के कई मंजिलों को देखा.
स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने संग्राम को तेज और धारदार बनाने के लिए उर्दू का प्रयोग किया. पं॰ रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्ति – “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जो़र कितना बाजु-ए-कातिल में है” – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के साथ अमर रहेगी.
जब उर्दू को महान स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद ने स्वतंत्रता संग्राम में अस्त्र. शस्त्र एवं ढ़ाल बनाया तो “अलहेलाल“ एवं “अलबलाग़“ के रुप में कोलकाता में इसने अपना जलवा दिखाया. अंग्रेजी शासन ने उर्दू को अपने सम्राजवाद के विरुद्ध बड़ी ताकत समझकर कई बार इनके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाया.
जब 1947 ई॰ में भारत स्वतंत्र हुआ तो सबकी चहेती उर्दू की घिघ्घी बंधने लगी. राजनेताओं ने उर्दू को जनमत संग्रह का साधन बना डाला. कथित सेकुलर राजनैतिक दलों ने उर्दू के लिए घड़ियाली आंसू तो जरुर बहाया परन्तु कथित साम्प्रदायिक राजनैतिक दलों ने उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहकर इसे प्रताड़ित करने का सरकारी स्तर पर सुनियोजित षड्यंत्र रच दिया.
तब से उर्दू अपनी संवैधानिक एवं मौलिक अधिकारों से दूर होती चली गई. अगर इस भाषा में गंगा-यमुनी संस्कृति की मिश्रित गाथाएं प्रकाशित नहीं हुई होती तो अब तक यह विलुप्त हो गई होती. उठे मन से ही सही पं॰ बृजनारायण चकबस्त की जयंती अथवा पुण्य तिथि पर उर्दू की महफिल लगाकर चकबस्त के द्धारा लिखित पवित्र उर्दू रामायण को सुना जाता है.