एक बार गांधी जी ने दातुन मंगवाया. किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया. गांधी जी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े. डांटते हुए उन्होंने कहा: “जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी.” गांधी जी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए. प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है.
परंतु आज प्रकृति का अनुचित दोहन हो रहा है. एक चरमसीमा से दूसरी पर पहुंचना हर किसी की ख्वाइश बनती जा रही है. इसी क्रम में विदेशी ताकतें अपना जाल फैलाये जा रही हैं, जिसमें पेटेंट उनका हथयार बनता जा रहा है.
अमेरिका की कंपनी कॉलगेट पामोलिव को भारत में 2005 में दाखिल एक अर्जी के आधार पर पारंपरिक भारतीय ‘लाल दंत मंजन’ का अमेरिकी पेटेंट दे दिया गया. यह चिंता का विषय है. केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार तो भारत में आयुर्वेदिक दवा निर्माता संघ ने इस पेटेंट की अर्जी को चुनौती भी नहीं दी है. हमारे एसोसिएशन ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसिन (ए.एम.ए.एम) ने इसकी सिर्फ आलोचना की है. ए.एम.ए.एम ने कहा है कि अमेरिकी ओरल केयर कंपनी कोलगेट के भारतीय पारंपरिक ज्ञान को गलत तरीके से पेटेंट पर रोक लगाई जाए. इस एसोसिएशन में डाबर, हिमालया, हमदर्द, वैद्यनाथ समेत 200 कंपनियां शामिल हैं. सांत्वना इतनी भर है कि हमारे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद ने इस सम्बन्ध में एक विरोध पत्र दायर किया है, बस.
कोलगेट पामोलिव देश के कुल ओरल केयर कारोबार के आधे हिस्से पर काबिज है जिसकी वैल्यू करीब 2,800 करोड़ रुपए है. जाहिर है यह कंपनी घरेलू बाजार के ग्रामीण हिस्सों में भी अब अपनी पहुंच बनाने के लिए सस्ते उत्पाद लॉन्च करेगी. आज कोलगेट ने दस्तक दी है. कल कोई और कुछ हथिया लेगा.
विदेशी ताकतें भारत के बीज बाजार पर भी कब्जा स्थापित करना चाहती हैं. अगर बीजों पर पेटेंट स्वीकार कर लिया गया तो भारत का किसान अपने अधिकारों से वंचित हो जाएगा. उसकी खेती उससे छिन जाएगी. भारत का किसान समुदाय ही बर्बाद हो जाएगा, और बीजों के साथ-साथ भारत की खेती विदेशियों के हाथों चली जाएगी. बीजों पर पेटेंट लागू होने से किसान अपनी फसल में से अपनी अगली बुवाई के लिए बीज बचा कर नहीं रख पाएगा. उसे हर बुवाई के लिए पेटेंटधारी विदेशी बीज कंपनी से नया और महंगा बीज खरीदना पड़ेगा.
पिछले वर्षो में परंपरागत भारतीय दवाओं की ओर कई विदेशी कंपनियों की नजर रही है. इसकी वजह यह है कि हमारी परंपरागत आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी आदि प्रणालियों में काफी विस्तार से दवाओं के गुणों के बारे में लिखा गया है. आधुनिक कंपनियों की दिलचस्पी इन दवाओं का रासायनिक विश्लेषण करके उनमें से ऐसे रसायन अलग करने की है, जिन्हें वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित करके आधुनिक दवाओं की तरह बेचा जा सके.
कई औषधियों को पेटेंट करने की कोशिशें भी हुई हैं. हल्दी और नीम तो एक बार पेटेंट हो गए थे जो वापस छीन कर लाने पड़े. अब भारत सरकार थोड़ा जागी है. हमारी परंपरागत धरोहर का एक व्यवस्थित रिकार्ड बनाया जा रहा है. इसी की बदौलत पुदीना और कालमेघ चीनी पेटेंट बनते-बनते बचे हैं.
आइए हम अपने खेतों और वनों की रक्षा करें. नहीं तो जो कोई भी चाहेगा वह हमारे जंगलों में से पेड़-पौधे या जीव-जंतु लेकर चलता बनेगा, और हम हाथ मलते रह जायेंगे. चौंकिये नहीं, हो सकता है तब लाल दंत मंजन भी उनसे ही उधार लेकर मुंह धोना पड़े.