भगत सिंह को चिट्ठी

अभी हुआ यकीन कि आग है मुझमें भी कहीं… सालों बीत गए, बहुत लोग आए और चले गए… और तुम… !!! बेटा कहां से आए हो, कोई नए मालूम पड़ते हो… जो दरवाजा खटखटा भगत सिंह के बारे में पूछ रहे हो. लंबे अर्से बाद किसी ने शिद्दत से भगत के बारे में पूछा है… नहीं तो लोग आते हैं, पत्थरों पर खुदे अक्षरों को पढ़ वापिस लौट जाते हैं. आओ… अंदर आओ बेटा.

जी अम्मा… यह कहते मैं आगे बढ़ता हूँ.

खटकडक़लां स्थित शहीद भगत सिंह का घर, गाँव के लोग, गलियां और चौबारे काफी बदले-बदले और कुछ पुराने से भी हैं. भगत सिंह के घर के साथ सटा एक छोटा सा मकान जिसकी छत पर खड़ा मैं गांव को ताक रहा हूँ.

अम्मा बताने लगती हैं… ‘बेबे’ (शहीद भगत सिंह की मां विद्यावती) ने अपनी सारी उम्र इसी मकान में गुजारी. मैं 75 बरस की हो गई हूँ. फिर से पूछती हैं. तुम कहां से आए हो बेटा… और क्या भगत सिंह के बारे में नहीं जानते?

उनके इस सवाल का जवाब मैं देता उससे पहले वह बताना शुरू कर देती हैं. आंखों में एक चमक और चेहरे पर रौनक देख मुझे लगता है कि अनजान बन कर शायद कुछ नया जान पाऊंगा. मैने पूछा, कौन थे शहीद भगत सिंह? मैं भगत सिंह को उनके नजरिए से देखना चाहता था. अम्मा कहती हैं, वो सब बाद में बताऊंगी. पहले यह बताओ तुम लिख-पढ़ लेते हो ! हां, मैंने जबाव दिया… अच्छा, तो तुम मेरे लिए एक खत लिखोगे? हां, क्यों नहीं, किसको लिखना है अम्मा? भगत को.

भगत… मतलब शहीद भगत सिंह को. हां, उसी को. मैं कुछ कह पाता उससे पहले ही अम्मा अपना चूल्हा-चौंका समेट रस्सी से बुनी गई खाट पर मेरे साथ आ बैठती है. हम्म्म्म्म… लिखो… जी अम्मा.

प्यारे भगत,

दो ही दिन हुए हैं. घर में माटी और गोबर का लेप किया है. 23 मार्च है न. लोग आएंगे, इसलिए आंगन में दीवारों को रंग भी दिया है. आज गांव में बहुत बड़ी रैली है. गांव के लोग बता रहे हैं कि मुख्यमंत्री आए हुए हैं. लाऊड स्पीकर की आवाज तले बहुत से लोगों का जमघट लगा है. आवाज घर तक सुनाई दे रही है. कोई बोल रहा है और वोट मांग रहा है. तरक्की के दावे भी कर रहा है. हमारे गांव के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है. बड़े-बड़े नेता यहां आते रहते हैं. बड़े-बड़े दावे कर लौट जाते हैं. गांव में बच्चों के खेलने के मैदान नहीं हैं. आज भी गांव के गेट पर बस नहीं रुकती. मीलों चलना पड़ता है.

नवाशहर को जाती रेल लाइन गांव से होकर गुजरती है. उस पर आज भी फाटक नहीं है. जाने-अनजाने अक्सर हादसे होते हैं. कुछ साल पहले कोई नेता आए थे, जिन्होंने कहा था 10 रुपए का सिक्का चलाया जाएगा, जिस पर भगत सिंह की फोटो होगी. वो सिक्का अभी तक देखने को नसीब नहीं हुआ. अक्सर लाऊड स्पीकर की आवाज सुनकर गांव के लोग खिंचे चले जाते हैं कि आज उनके मतलब की बात होगी, लेकिन फिर खाली हाथ लौट आते हैं.

आगे क्या लिखना है अम्मा !

कुछ सोचते हुए फिर आगे बढ़ती हैं और कहती हैं, हां लिखो…

मैं, बलबीर और सोहन सिंह अक्सर तुम्हारे किस्से बच्चों को सुनाते हैं, लेकिन गांव के बच्चे अब ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते. नई पीढ़ी कुछ उखड़ी-उखड़ी है. कुछ सुनने को तैयार ही नहीं. इस घर में आज भी तुम्हारे विचारों की लौ जलती है. मैं अक्सर घर में जाकर बैठ जाया करती हूँ और बेबे (भगत सिंह की मां) के साथ बिताया वक्त याद कर लेती हूँ. अपना ध्यान रखना.

अम्मा के लिए शहीद भगत सिंह आज भी जिंदा हैं. अम्मा ने बताया कि बेबे कहती थी कि भगत मरा नहीं वो आज भी जिंदा है और रहेगा.

अम्मा की यह बात सुन मेरे जहन में शहीद भगत सिंह द्वारा उनकी जेल डायरी में लिखी कुछ पंक्तियां याद आ गईं जो कुछ इस तरह थी —  ‘कुरेह ख़ाक है गर्दिश में तपश से मेरी; मैं वो मजनू हूँ जो जिंदा में भी आजाद रहा’. (मेरे ख्यालों की तपिश से आज कण-कण जल उठा है. मैं एक ऐसा मजनू हूं जो जेल में भी आजाद है.)

वाकई वो आज भी जिंदा है, उन विचारों की लौ आज भी आंधियों से लड़ रही है. उनकी जलाई आग की तपश को गोरे सहन नहीं कर पाए थे. आखिरकार उन्हें मुल्क को छोडऩा ही पड़ा था.

अम्मा से भगत सिंह के कई किस्से सुनने के बाद महसूस हुआ कि मैंने देश के लिए क्या किया है. उन किस्सों से ही मुझे हुआ यकीन कि आग है मुझमें भी कहीं…

यह आग उन तमाम नेताओं के लिए मैंने भडक़ाने की सोची, जिन्होंने शहीदी दिवस की आड़ में शहीद भगत सिंह के गांव को राजनीति के लिए इस्तेमाल किया. उन नेताओं को कुछ सूझा तो सिर्फ आरोप, जो वह एक-दूसरे की सरकार पर मढ़ते गए. न शहीद को याद किया किसी ने, न शहीद के गांव को. सब उस पावन सरजमीं को राजनीति का अखाड़ा बना एक दूसरे से भिड़ते रहे.

23 साल की उम्र में हंसते हंसते शहीद भगत सिंह ने फांसी के फंदे चूम कर गले लगाया था सिर्फ इसलिए कि नौजवानों के सीने में जो आग जलाई गई थी वो बुझ न पाए. मेरी उम्र 23 साल की है, आज के युवाओं से मैं ही नहीं, वो अम्मा, वो भगत सिंह के किस्से, वो गांव के लोग… सब सवाल कर रहे हैं कि आपके सीने में वो आग क्यों नहीं जो भगत सिंह के सीने में थी ?

– कैफ | खटकडक़लां (पंजाब) से लौटकर | 2011


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