सन 1997 की बात है. तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी एक और रथ पर सवार लहलहा रहे थे. इस बार वह ‘स्वर्ण जयंती यात्रा’ निकाले हुए थे. मैं मुजफ्फरपुर (बिहार) में उन्हें कैपचर करना चाहता था. कलम, राइटिंग पैड, छोटा कैमरा और एक दिन पहले की उनकी न्यूज़ कवरेज लेकर बैठा था, विश्वविद्यालय के मैदान में. इन्तजार जल्द ही ख़त्म हुआ था.
‘जय श्री राम’, ‘आडवाणी जिंदाबाद’, ‘भारत माता की जय’ के उदघोषों के बीच सभी प्रकार के आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित स्वर्ण जयंती रथ का दृश्य देखते ही बनता था. लगभग छः लाख की कीमत से बने वातानुकूलित रथ ने एक नजर में महाभारत के अर्जुन रथ का स्मरण कराया था.
आडवाणी भी बार-बार राष्ट्रभक्ति, देशभक्ति की बातें दुहराकर निःस्वार्थ भाव से देश के उत्थान में विवेकपूर्ण सोच लाने का आह्वान करते दिखे थे. स्वार्थ दबाकर अनुशासन टपकाने का युवाओं का आह्वान तो विश्वविद्यालय के मैदान की हर घास को जमीन के अन्दर तक छू गया था. तभी तो बार-बार लग रहे नारों में बाकी पार्टी दिग्गजों की उपस्थिति गौण सी थी.
इस यात्रा की खास बात थी आडवाणी द्वारा लोगों को तीन प्रतिज्ञाएं कराना. रथ यात्रा के काफिले तथा आडवाणी को एक नजर देखने को उत्सुक भीड़ को आडवाणी ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच प्रतिज्ञाएं सुनाकर उनका पालन करने का आश्वाशन भी प्राप्त किया था.
आखिर क्या थी वो तीन प्रतिज्ञाएं? पहली प्रतिज्ञा के रूप में उन्होंने कहा था, “मैं स्वर्ण जयंती वर्ष में संकल्प लेता हूँ कि मैं न कभी रिश्वत लूँगा और न कभी दूंगा.”
दूसरी प्रतिज्ञा का संकल्प था: “मैं जो भी काम करता हूँ उसे ईमानदारी, लगन और अनुशासन से करूंगा”.
और काफी सोच-समझकर तैयार किया गया संकल्प था: “मैं जीवन में जो भी फैसला करूंगा उसे विवेक के आधार पर करूंगा. जाति या पार्टी या धर्म के आधार पर नहीं.”
तब तो ये तीन प्रतिज्ञाएं पीछे छोड़ आडवाणी का रथ — ब्लैक कैट व रैपिड एक्शन फ़ोर्स की हामी मिलते ही — मुजफ्फरपुर से आगे पटना की ओर निकल पड़ा था. क्या आडवाणी अब भी उन तीन प्रतिज्ञाओं पर कायम हैं?