कोरोना को फैलने से रोकने के लिए जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है, व्हाट्सऐप पर कई वीडियो वायरल हो रहे हैं. इन वीडियो में देखा जा सकता है कि कैसे सड़क पर चलते एक्का-दुक्का लोगों को पुलिस बेरहमी से लाठियों से पीट रही है. बर्बरता के लिए भारतीय पुलिस की कार्यशैली पर प्रश्न उठते रहे हैं.
आंखों से देखा ‘कुछ’ उत्पीड़न
एक सज्जन बताते हैं: “हृदयविदारक स्थिति है! सत्ता और उसके सिपाही अपने स्वभाव से लाचार हैं. जनता हर बार की तरह निरीह और मजबूर.”
दूसरे कहते हैं: “आज सुबह मेरे दूध वाले को पुलिस ने बहुत मारा. दूध वाले के हाथ की एक उंगली टूट गई है.”
पेशे से शिक्षक सुधांशु फिरदौस के अनुसार, “पुलिस की ज्यादतियों की खबर हर तरफ से आने लगी है. यह शर्मनाक है. नसबंदी, शराबबंदी और नोटबंदी में पुलिस की बर्बरता का इतिहास रहा है. इस लॉकडाउन की घड़ी में भी पुलिस वाले क्रूरता के प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे हैं. आने वाला वक्त बहुत क्रूर है.”
जी. मौजूदा स्थिति में पुलिस से ज्यादा ताव लोगों को उन पर आ रहा है जो पुलिस की पिटाई को जायज ठहरा रहे हैं.
जानकारी भी समझदारी भी
सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि सड़कों पर जिस पुलिस बल को लगाया जाता है उनकी शिक्षा का स्तर कैसा होता है? क्या उनको इतनी समझ होती है कि वर्तमान में क्या परिस्थिति है और किसे पीटना है, कितना पीटना है, किसे नहीं छूना है?
क्या पुलिस सिर्फ उन्हें ही बर्बरता के लिए चुनती है जो जान-बूझकर कानून का उल्लघन करते हैं? या फिर निर्दोष को भी उतनी ही बेरहमी से ‘समझाया’ जाता है? ऐसा लगता है कि पुलिस को जैसे ही ‘काम’ पर लगाया जाता है उसे बस इतना बताया जाता है कि शहर में कर्फ्यू लगा है और उसे उसका पालन करवाना है.
जब किसी को भी घर से सिर्फ यूं ही निकलने की इजाजत नहीं दी गई हो है तो पुलिस के सामने सिर्फ एक ही टास्क होता है, और पुलिस हर कीमत पर उसे लागू करने हेतु खुद को ‘झोंक’ देती है. तब ऐसा लगता है मानो पुलिस का डंडा भूखा हो और उसे लोगों के ऊपर बरस कर अपनी प्यास भी बुझानी हो.
ऐसे में जरुरी है कि जिस पुलिस बल को सड़कों पर कानून व्यवस्था कायम करने हेतु लगाया जाता है उसकी ट्रेनिंग अच्छी हो. सड़क पर सांड की तरह नहीं बल्कि समझ के साथ उन्हें जनता को अनुशासित करना चाहिए.
घर से निकलने वाले नाना प्रकार के
समाज में कई तरह के लोग हैं. कुछ तो सही में समझदार हैं और बिना वजह घर से बाहर नहीं निकलते. कुछ जरुरत से ज्यादा समझदार दिखने की कोशिश में और अपने को रसूखदार साबित करने के चक्कर में बे-वजह घर से बाहर निकलते हैं और शेखी बघारते हैं, कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.
कुछ तो सिर्फ कानून तोड़ने का मजा लेने के लिए भी सड़क पर निकल पड़ते हैं. कुछ को घर में मन नहीं लगता, इसलिए सड़क पर निकल पड़ते हैं. शायद उन्हें स्थिति की गंभीरता समझ नहीं आती.
ऐसे में पुलिस के समक्ष समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं कि निर्णय कैसे लिया जाए कि कौन वजह से सड़क पर है और कौन बे-वजह. चाहे जो भी हो, कानून भी ऐसा मानता है कि सौ निर्दोष छूट जाएं लेकिन एक निर्दोष को सजा न मिले.
ऐसे में पुलिस को सोच-समझकर निर्णय लेने की जरुरत होती है. पुलिस को बल का प्रयोग पूरी गंभीरता से और समझदारी से करना चाहिए, तत्परता से नहीं या फिर सिर्फ मस्ती के लिए नहीं. पुलिस को ये नहीं समझना चाहिए कि ऐसे ‘अवसर’ रोज़ हाथ नहीं आते.
पुलिस कानून की रक्षक है, साथ ही इंसान की भी. जहां इंसान को इंसान से खतरा हो वहां पुलिस खतरा पहुंचाने वाले इंसान का ‘ख्याल’ कानून के दायरे में रहकर करे तो जायज ठहराया जा सकता है. लेकिन, कोरोना एक प्राकृतिक आपदा है. इस माहौल में पुलिस इंसानी आपदा न बने. एकदम नहीं.