दिल्ली स्थित जी.बी. रोड की गलियां मशहूर भी हैं और सेक्स वर्कर्स (sex workers) के नाम पर बदनाम भी.
दो वर्ष पहले एक एन.जी.ओ. की मीटिंग के सिलसिले में पहली बार जी.बी. रोड जाना हुआ. रविवार का दिन था, और सुबह के 10 बज रहे थे.
टैक्सी ने मुझे नई दिल्ली स्टेशन से कुछ दूर आगे एक चौराहे तक छोड़ दिया. इससे आगे वह जाना ही नहीं चाहता था.
एक-आद ठेले, कुछ रिक्शे और कुत्तों के इलावा सड़कें पूरी खाली थीं.
एक किलोमीटर चल कर मुझे दाएं किसी गली में मुड़ना था. वहां कुछ लोग मौजूद थे. उन्हीं से पता पूछते-पूछते मैं एक इमारत के सामने आ पहुंची.
एन.जी.ओ. के एक वॉलेंटियर से पता चला कि मैं बिलकुल सही जगह आई हूं, और मुझे उसी इमारत की छत पर पहुंचना है जहां बाकी सदस्य पहले से ही मौजूद थे.
इमारत में घुसने का एक ही रास्ता था जिसके द्वार से ही सीढ़ियां शुरू हो रही थीं. अंधेरा इतना था कि पहली दो सीढ़ियों के आगे कुछ नज़र नहीं आ रहा था.
दिल जितनी तेज़ रफ़्तार से धड़क रहा था, मेरे कदमों की गति उतनी ही धीमी थी.
सीढ़ियां काफी ऊंची थीं और रास्ता मात्र एक मीटर जितना चौड़ा. फोन की टॉर्च लाइट में दीवारों पर पान-गुटके के पीक व धब्बे सने दिख रहे थे.
रेलिंग के नाम पर एक मोटी सी रस्सी बंधी थी.
मैं आगे तो बढ़ती जा रही थी पर अपने आगे अंधेरा गहराता जा रहा था.
लगभग 12-15 सीढ़ियां चढ़ने के बाद कुछ मर्दों के ठहाकों की गूंज सुनाई देने लगी. मैं एक मिनट वहीं रुक गई और उनकी बातें सुनने लगी.
आवाज़ साफ़ नहीं थी पर इतना पक्का था कि ये एन.जी.ओ. के लोग तो नहीं थे. मैंने वॉलेंटियर को फिर कॉल किया और उसने एक बार फिर आश्वासन दिलाया कि उसी इमारत में और ऊपर जाते जाना है.
सीढ़ियों के अंत में एक खुली जगह थी जहां कुछ लोग अनाज छाट रहे थे. उन्ही में से एक सज्जन व्यक्ति ने पूछा, ‘एन.जी.ओ. से आए हो?’
‘जी’
फिर उन्होंने मुझे कमरे के दूसरी तरफ छत की सीढ़ियों का रास्ता दिखाया.
अब मेरे लिए समझना मुश्किल हो रहा था कि उनकी बात माननी चाहिए या नहीं.
वॉलेंटियर को पांच मिनट के अंदर पांचवीं बार कॉल करने से अब मैं कतरा रही थी.
एक और पतला-सा अंधेरा-सा बंद रास्ता, फिर वही ऊंची-ऊंची सीढ़ियां और एक गन्दी सी रस्सी.
वो सभी भयानक दृश्य याद आने लगे जो कभी फिल्मों और किताबों में देखे एवं पढ़े थे. शायद इन्हीं जैसी कोई सीढ़ियां रहीं होंगी जिनपर बहला-फुसलाकर ना जाने कितनी मासूम बच्चियों को ले जाया गया होगा.
कभी किसी ने भागने की कोशिश भी की हो तो उन्हें मार पड़ी होगी. उन्होंने जब रस्सी पकड़ बचना चाहा हो, तो क्या पता उसी रस्सी से उनके हाथ पैर बांध दिए गए हों.
शायद ये सब महज़ कल्पना हो, यकीनन यही ना जाने कितनों की जीती जागती सच्चाई हो.
शायद यह कभी एक घर रहा होगा, किसी नए जन्मे शिशु का, कुछ सहेलियों का, कुछ दलालों का और कुछ अपनों का. शायद सीढ़ियों से सिर्फ वही नहीं गुज़रे जिनके साथ धोखा हुआ पर वह भी इन्ही सीढ़ियों से गुज़रे होंगे जिन्होंने ठोकरें खा कर भी फिर एक बार, कई बार, बार-बार उठने की हिम्मत दिखाई होगी.
अंततः मैं छत पर पहुंच ही गई. अन्य वॉलेंटियर्स के साथ वहां कुछ सेक्स कर्मचारी दीदियां भी मौजूद थीं. उन्होंने मेरा इंटरव्यू भी लिया और अपने हाथ की बनाई रोटियां भी खिलाईं.
आज मैं कई सेक्स कर्मचारियों और उनके हित में काम करने वाली संस्थाओं से जुड़ी हूँ. भारतीय साहित्य में तस्करी से जुड़े मुद्दों पर शोध भी कर रही हूं.
पर, आज जब ‘नेशनल ह्यूमन ट्रैफिकिंग डे’ (National Human Trafficking Awareness Day) यानी राष्ट्रीय मानव तस्करी जागरूकता दिवस के दिन जी.बी. रोड की वह सुबह याद कर रही हूं, तो वक़्त थम सा गया है.
किसी भी आम घर की तरह जी.बी. रोड का हर एक घर भी कई कहानियां कहता है. इन गलियों की बदनामी सेक्स वर्क से नहीं, बल्कि उस शोषण, अपमान और भेदभाव से है जिसके हिस्सेदार हम सभी हैं.