बॉलीवुड और दक्षिण भारतीय फिल्मों के प्रसिद्द कलाकार रजनीकांत (70) द्वारा गठित राजनीतिक दल रजनी मक्कल मंदरम के अस्तित्व को महज ढाई वर्ष के बाद ही समाप्त कर दिया गया. 30 वर्षो से चल रहे कयास के बाद 2018 में पार्टी की नींव रखी गई थी. और तब से ही रजनीकांत (Rajnikant) का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था. परिणामस्वरूप दिसंबर 2020 में ही उन्होंने ऐसे संकेत दे दिए थे कि वो राजनीति में जोर आजमाइश नहीं करेंगे और चुनाव में भी भाग नहीं लेंगे.
रजनीकांत के इस फैसले ने कई सवाल को जन्म दिया है
बॉलीवुड (Bollywood) के ढेरों सफल कलाकार (actors) बुलंदियों पर पहुंचते ही स्वयं के लिए राजनीति का मार्ग प्रशस्त करने की ख्वाहिश में जुट जाते हैं. सभी को एन.टी. रामाराव, एम.जी. रामचंद्रन, जानकी रामचंद्रन और जयललिता सरीखे अभिनेताओं में अपने अक्स नज़र आने लगते हैं.
गौरतलब है कि सफल हुए फ़िल्मी कलाकारों की फेहरिश्त ज्यादा लम्बी नहीं रही है; बल्कि असफल की सूची लम्बी अवश्य है. एन.टी. रामाराव और एम.जी.आर. ही मात्र ऐसे फ़िल्मी कलाकार रहे हैं जो पूर्णतः सफल अभिनेता और सफल राजनेता भी रहे.
जयललिता फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कहने के पश्चात पांच बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री पद पर काबिज हुईं. दूसरी ओर बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपने अल्प-अवधि के राजनीतिक जीवन को विराम देकर फिल्म और कला की दुनिया से ही रिश्ते को बनाने में अपना तन, मन और धन लगाया.
राजेश खन्ना और मिथुन चक्रबर्ती ने राजनीति में ग्लैमर जोड़ने की कोशिश का अलावा क्या किया, यह कहना मुश्किल है. वहीं साउथ फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर अभिनेता चिरंजीवी एक्टिंग के अलावा राजनीति में थोड़े दिन लकी रहे. उन्होंने आंध्र-प्रदेश में प्रजा राज्यम पार्टी की स्थापना की लेकिन उनकी पार्टी का विलय कांग्रेस में हो गया, और वे सांसद रहते हुए भी राजनीति से दूर हो गए.
स्मृति ईरानी के बारे में क्या कहेंगे जिन्होंने ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में तुलसी का किरदार निभाकर घर-घर में पहचान पाई और वर्तमान समय में भारतीय जनता पार्टी में प्रमुख भूमिका में नज़र आती रहती हैं. सनद रहे कि राजनीति में आने के बाद स्मृति ने अभिनय के क्षेत्र से एकदम दूरी बना ली है.
धर्मेन्द्र और विनोद खन्ना ऐसे सांसद रहे जो कभी पब्लिक में दिखे ही नहीं. इनका राजनीति में होना, न होने की तरह ही था. हेमा मालिनी, जया भादुरी (बच्चन), और जया प्रदा, तो चुनाव के समय कभी-कभार दिखती भी हैं परन्तु बाकी के समय सिर्फ इश्तिहार में नज़र आती हैं या फिर तब जब उनके खिलाफ कोई प्रशासनिक कार्रवाई होती है.
अभिनेत्री रेखा की संसद में उपस्थिति को देखकर लगता है कि उनको तो संसद की सदस्यता लेनी ही नहीं चाहिए थी. उनके स्थान पर कोई और सक्षम अभिनेता शायद फिल्म जगत की समस्याओं एवं अधिकारों की बात सदन के पटल पर रख पाता.
कमल हासन दो-दो हाथ के लिए कितने हैं तैयार?
कमल हासन ने तो अपना राजनीतिक दल बनाकर चुनाव में पटखनी भी खा ली, फिर भी वे मैदान में मौजूद हैं. लेकिन लगता नहीं कि वे और टिक पाएंगे. यह दिलचस्प है कि ये सभी लगभग सुपर स्टार व लोगों के दिलों में राज करने वाले एक्टर रह चुके हैं. अफ़सोस, इनका जलवा राजनेता के रूप में कायम न हो सका.
यह इस तथ्य को दर्शाता है कि हर सफल अभिनेता सफल राजनेता नहीं बन सकता. राजनीति के कलाकार के हुनर अलग होते हैं जो प्रत्येक अभिनेता के पास नहीं होता. गौर करने पर पता चलता है कि न तो कमल हासन के दल ने और न ही रजनीकांत के दल ने राजनीतिक चुनाव के गणित को किसी भी तरह से प्रभावित किया.
फिल्मों में अपने अंदाज से सबको आकर्षित करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा ने 80 के दशक में ही राजनीति ज्वाइन कर ली थी. उन्हें बिहार में एक सफल नेता कहा जाता है क्योंकि वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे. उन्हें लोग बिहारी बाबू के नाम से पुकारते हैं. लेकिन लोगों के दिल में राज करने वाले गोविंदा का सिक्का राजनीति में नहीं चला. वे चुनाव जीत कर भी राजनीति करने से हार गए.
अभिनेता जहां पैसे और ग्लैमर के बल पर राजनेता और सत्ता का खेल खेलना चाहते हैं, वहीं राजनेता सत्ता के बल पर पैसा और ग्लैमर दोनों हासिल कर लेते हैं. अभिनेता का जनता से सरोकार सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए होता है जिसके बल पर वो उनका सपोर्ट हासिल करना चाहते हैं; जबकी राजनेता जनता के बीच रहकर उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं को कार्यान्वित कर जनता से सरोकार कायम करते हैं.
शायद ऐसे फर्क ही राजनेता को अभिनेता से ज्यादा सफल बनाते हैं. लगता है सोनू सूद इस फर्क को सही समझ रहे हैं. इस फर्क को कई हद तक अभिनेता राज बब्बर और सुनील दत्त ने भी काफी समझा; राज बब्बर तो जी-तोड़ मेहनत करते दिख रहे हैं.