लीना यादव निर्देशित फिल्म पार्च्ड अचानक काफी सुर्खियों में दिखी. फिल्म में राधिका आप्टे, तनिष्टा चटर्जी, आदिल हुसैन, लहर खान और सयानी गुप्ता ने मुख्य किरदार निभाए हैं. पार्च्ड अपने साहसिक थीम और स्त्री अधिकारवादी विषय के कारण विवादों में भी रही. फिल्म भारतीय दर्शकगण को इसलिए रास नहीं आई क्योंकि यह बोल्ड थी. लेकिन संयोग देखिए, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिल्म को काफी सराहना मिली और ये टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में भी स्क्रीन की गई.
मराठी फिल्म उद्योग में हाल ही में एक नई तरंग उठी है. कोर्ट, किल्ला और सैराट जैसी फिल्मों के साथ मराठी सिनेमा ने अविश्वसनीय सफलता और प्रसिद्धि हासिल की. ये फिल्में भले मराठी बोलने वाले क्षेत्रों के बाहर ज़्यादा सफल न हुई हों, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्हें अपार सफलता मिली है. फिल्म कोर्ट को करीब 20 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया एवं 71वें वेनिस फिल्म फेस्टिवल में भी यह स्क्रीन की गई. फिल्म किल्ला को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में दो सम्मान प्राप्त हुए. साल 2016 में रिलीज़ फिल्म सैराट ने भी अकल्पनीय शोहरत हासिल की.
कुछ साल पहले प्रदर्शित इरफ़ान खान और निमृत कौर अभिनीत पत्रकाव्यगत फिल्म द लंचबॉक्स ने जहां अंतरराष्ट्रीय सिनेमा जगत में तहलका मचाया वहीं इसे भारत में निराशा का सामना करना पड़ा. नीरज घायवान द्वारा निर्मित फिल्म मसान को भी जहां कान फिल्म फेस्टिवल में सम्मानित किया गया वहीं भारतीय ऑडियंस ने जातिवाद पर आधारित इस बोल्ड फिल्म को अस्वीकार किया, हालांकि समीक्षकों ने इस फिल्म की खूब प्रशंसा की. फिल्म द लंचबॉक्स को कान फिल्म फेस्टिवल व टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन किया गया और ब्रिटिश फिल्म अकादमी में इसे नामांकन मिला था. फिल्म का एक विषय विवाहेतर संबंध था और शायद इसलिए ये फिल्म भारतीय दर्शकों को रास नहीं आई.
गट्टू, धनक, अनफ्रीडम भी ऐसी ही फिल्में हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिला किंतु अपने देश में इन्हें निराश होना पड़ा. वजह या तो बोल्ड या विवादित थीम रही या सेलिब्रिटी की कमी.
हाल ही में फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुर्का सुर्ख़ियों में रही क्योंकिं सेंसर बोर्ड ने फिल्म के रिलीज़ पर पहले प्रतिबंध लगा दिया था. कारण बताया गया था कि फिल्म महिलाओं की कामुकता को दर्शाती है. यह ख़ुशी की बात है कि इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय सिनेमा जगत में प्रतिष्ठा से सुस्सजित किया जा रहा है. अब वक़्त आ गया है कि भारतीय दर्शकों को खोखले और बड़े नामों द्वारा सुस्सजित फिल्मों से अपना रुख सार्थक फिल्मों की तरफ करना होगा.