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केरल में रंगमंच महोत्सव

रंगमंच कभी अद्भुत दिखता था जब कलाकार न सिर्फ बोलते और गाते थे बल्कि वे मंच पर अपने पैर पटक कर और ढोल बजाकर संगीत की धुन निकालते दिखते थे.

आधुनिक युग में भी आशावान रंगमंच कर्मियों ने अपनी कोशिशें नहीं छोड़ी हैं.

केरल में आयोजित नौवें अंतरराष्ट्रीय रंगमंच महोत्सव में देखने को मिला कि कैसे मंच पर और फिर दर्शकों के बीच भी कलाकार की भाव-भंगिमाएं मनमोहक व जीवंत होती हैं.

केरल के थ्रिस्सुर शहर में आयोजित इस महोत्सव में नाटकों एवं प्रदर्शनों को स्थायी रंगमंच से बाहर निकाला गया और अलग-अलग सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शन किए गए.

इस महोत्सव ने स्थाई रंगमंच की चार दीवारियों को तो तोड़ा ही, साथ ही दर्शकों एवं कलाकारों के बीच के संबंधों के साथ भी प्रयोग किया.

कहीं तो दर्शक एक ओर से इन प्रदर्शनों को देखते हुए नज़र आए तो कहीं प्रदर्शन के चारों ओर दर्शक विराजमान थे.

किसी प्रदर्शन में कलाकार सीधा दर्शकों से बात करता हुआ नज़र आया, तो किसी में वो दर्शकों से बीच से गुजरता हुआ अभिनय करते हुए दिखा.

कहीं तो दर्शक पेड़ के नीचे बैठ कर प्रदर्शनों को देखते हुए नज़र आए तो कहीं किसी नाटक में कलाकार वास्तविक पेड़ों के ऊपर चढ़कर अभिनय करते हुए दिखे.

इस महोत्सव में प्रस्तुत किए गए नाटक केवल देखने और सुनने तक ही सीमित नहीं थे. प्रदर्शनों में पञ्च तत्वों एवं पांचों इंद्रियों के प्रयोग का समावेश दिखा.

यूं तो पूरे भारत में अनेक महोत्सव राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए जाते हैं, लेकिन केरल के इस महोत्सव ने रंगमंच को देखने और उसे जीने का एक दिलचस्प परिप्रेक्ष्य दिया.


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