बीते कई दशकों से रंगमंच को हम भूलते जा रहे हैं. किसी भी कला को ज़िंदा रखने के लिए कलाकार के साथ सहृदय की ज़रूरत होती है. सहृदय वही दर्शक हैं जो फिल्मों को सौ करोड़ के पार ले जाते हैं.
सिनेमा इन्हीं सहृदयों की बदौलत तो फल फूल रहा है. वहीं रंगमंच के कलाकारों को सहृदयों की भारी कमी से नुकसान झेलना पड़ रहा है. यही कारण है कि रंगमंच की प्रसिद्धि कम हो गई है.
वह रंगमंच जिसने कभी शहरों में धूम मचाते हुए गांवों को भी अपना केंद्र बनाया था, वह आज बड़े शहरों में कुछ गिने-चुने कलाकार और दर्शकों में ही सिमट कर रह गया है.
क्या सच में कभी गांवों में भी बसता था रंगमंच? सवाल तो कई उठते हैं – इन गांवों के बीच रंगमंच कहां हैं और इससे भी ज़रूरी प्रश्न कि अब गांव कहां हैं?
गांवों का ज़िक्र आते ही हमारे सामने दूर तक सोते हुए खेत नज़र आते हैं, एक दूसरे से बतियाते मटमैले घर, नंग- धड़ंग भागते बच्चे, शर्माती औरतें और कुदाल कंधे पर रख खेतों को जगाने जाते किसान.
लोकमंचीय रूपों में मनोरंजन के साथ दर्शन
आधुनिक थिएटर की कल्पना से ठीक उलट, गांव का रंगमंच दर्शकों से घिरा मैदान होता है, जो धूल के उबाल से उत्साहित होकर एकटक आसमान को देखे जाता है.
इस मैदान के ठीक बीचों-बीच खड़ा होता है विदूषक, यानी मसखरा, जिसका लिबास ऐसा कि देखते ही भोली-भाली ग्रामीण जनता पेट पकड़ कर हंस दे.
उस मसखरे की चिकनी ज़बान में न जाने कितने व्यंग्य और जीवन के रहस्य छुपे हुए होते हैं.
उसके साथ मौजूद होता है एक स्त्री रूप में सजाधजा नौजवान जिसकी अदाएं ऐसी कि एक से एक सुंदरी फ़ीकी नज़र आएं.
वो युवक खुद को राधा समझकर नाचता है. मसखरे से स्त्री-हृदय की पीड़ा को कहता है.
दर्शक औरतें पल्लू से आंखे पोछती नज़र आती हैं. संगीत की एक टोली एकाएक धुन पकड़ती और वह राधा दुख भूल कर नाचने लग जाती.
इस नाटक का नाम है ‘बिदेसिया’. यह बिहार के गांव-प्रांत में कभी खूब खेले जाने वाले लोक नाटक में से एक है.
इसी तरह मध्य प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में ‘माच’, उत्तर प्रदेश में ‘लीला’, ‘रास’, ‘नौटंकी’, हरियाणा में ‘सांग’ आदि को कभी खूब खेला जाता था.
इन लोकमंचीय रूपों में मनोरंजन के साथ जीवन के तमाम दर्शन को देखा जा सकता है.
क्या हममें है वह ‘सहृदय’
आज गांवों के साथ-साथ यह कलाएं भी मिटने लगी हैं. गांव शहर में तब्दील होता जा रहा है और यह मंचन हाशिये पर.
कुछ संगठनों ने ज़िम्मेदारी ली कि वह रंगमंच को शहरों में भी बचाए रखेंगे. मगर रंगमंच बिना दर्शकों के कैसे बचा रहेगा?
रंगमंच को ज़रूरत है सच्चे सहृदयों की- ऐसे सहृदय जो अभिनय के पीछे छिपे जीवन दर्शन को ढूंढने के लिए बेचैन हों.
क्या हममें है वह ‘सहृदय’ जो देखता है मसखरे को और रीझ जाता है उसके अभिनय पर, घर जाता है और सुलझाता है वह तमाम व्यंग्य जो उस मसखरे ने समाज को बेहतर करने के लिए हंसकर बेढंगे दांतों को दिखलाते हुए कहे थे.
– प्रियंका सिंह