ब्रिटिश राज में सामंतवाद के अंत, बेरोज़गारी के उत्थान और महिलाओं की स्थिति को दर्शाती 1962 में आई साहिब बीबी और ग़ुलाम हिन्दी सिनेमा की कुछ उन चुंनिंदा फिल्मों में से है जिसकी महत्ता हर समय रहेगी.
बिमल मित्रा के उपन्यास पर आधारित यह सिनेमा जितना उपनिवेशित भारत में ज़मींदारों के गिर रहे सामाजिक परिवेश को दर्शाता है उतना ही पति के प्यार से वंचित एक लाचार औरत की मनोदशा को भी दिखाता है.
जहां एक तरफ यह फिल्म एक निचली श्रेणी के शिक्षित लड़के के रोज़गार को लेकर जद्दोजहद बताता है वहीं ज़मींदार घराने की लड़की के समाज एवं प्यार को लेकर सोच भी दर्शाता है.
गुरु दत्त, मीना कुमारी, रहमान, वहीदा रहमान अभिनीत इस सिनेमा की कहानी भूतनाथ (गुरु दत्त) के इर्द गिर्द घूमती है, जो एक पुरानी हवेली को देख कर अपने पिछले दिनों को याद करने लगता है.
एक दिन भूतनाथ को हवेली की छोटी बहू बुलाती है जिनके पति उनपर ध्यान ना देकर बाहर मुजरों एवं नशे में ही समय बिताते हैं.
हताश छोटी बहू (मीना कुमारी) और भूतनाथ की बात जो मोहिनी सिंदूर से शुरू होती है आने वाले समय में एक अजीब से रिश्ते में बदल जाती है.
दूसरी और भूतनाथ एवं उसके मालिक की बेटी जबा (वहीदा रहमान) का रिश्ता आपको हेमंत कुमार के संगीत के ज़रिये आपको प्यार से रूबरू कराएगा.
कहानी में मोड़ तब आता है जब भूतनाथ काम के सिलसिले में हवेली छोड़ कर चला जाता है.
वी.के. मूर्ति के अतुल्य छायांकन से पिरोया हुआ यह सिनेमा आपको लेकर चलेगा छोटी बहू की ज़िन्दगी में, जो अपने पति को पाने के लिए शराब पीने लग गई है, पर फिर भी वह अपने पति से वह सम्मान एवं प्यार नहीं पा सकी जिसकी वह हक़दार थी.
भंवरा बड़ा नादान है, ना जाओ सैयां छुड़ा के बैंयां जैसे सदाबहार गाने सुनने के लिए ज़रूर देखिएगा साहिब बीबी और ग़ुलाम.