गांव, कस्बों एवं छोटी जगहों के शहरीकरण से तो आप रूबरू होंगे ही जिसकी वजह से लोगों का पलायन होना शुरू हुआ और एक दिन के आठ पहरों की जगह ज़िन्दगी घंटो, मिनटों और सेकंडों में सिमट कर रह गई. शहरीकरण का तात्पर्य शहर में रहने वालों से नहीं बल्कि शहरों की संस्कृति को अपने हिसाब से चलाने वाले अभिजात वर्ग से है. यही आगे चलकर एक वजह बनी जिसकी वजह से गांव, कस्बों के स्वांग नौटंकी देखने जाने वाले दर्शकों की संख्या में गिरावट आनी शुरू हुई.
उत्तर प्रदेश के बृज क्षेत्र में तो होली का पर्व बहुत धूमधाम से लंबे समय तक मनाया जाता है जिसमें कई जगह मेले भी लगते हैं जहां स्वांग-नौटंकी की कंपनियां अपने कार्यक्रम रात भर प्रस्तुत करती हैं. इनमें मुख्यतः मथुरा के होतीलाल पांडे की कंपनी है जो आज भी आठ से दस घंटे की नौटंकी के प्रदर्शनों में पूरी रात लंबी आवाज़ के साथ गाने की हिम्मत रखती हैं. इसके अलावा कई ऐसे मेले हैं जहां रात भर नौटंकी खेली जाती है, जैसे कोसीकलां का मेला.
जो विधा रातभर खेली जाती हो और जब कोई उसे केवल डेढ़ से दो घंटे में समाप्त करे तो उस विधा को पूरी तरह से समझ पाना कितना सही होगा यह एक सवाल है. यह केवल एक विधा से जुड़ा हुआ सवाल नहीं बल्कि उन राष्ट्रीय सरकारी संस्थानों से जुड़ा हुआ है जिनकी स्थापना भारत की कला और संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार के लिए हुई थी लेकिन शहरीकरण ने उन्हें भी अपने हिसाब से चलने पर मजबूर कर दिया.
इन नाट्य रुपों की प्रस्तुति खुले आकाश के तले एक मंच के ऊपर हुआ करती है जहां तीन ओर, कभी- कभी चारों ओर दर्शक बैठ जाते हैं. मंच के समीप ही किसी बंद स्थल में श्रृंगार घर बना लिया जाता है जहां पात्र सजते हैं और भूमिका के समय यथानुसार दर्शकों के मध्य छोड़े हुए पतले रास्ते से मंच पर प्रवेश और प्रस्थान करते हैं. इस लोकनाट्य शैली की प्रसिद्धि का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में है.