जीवन शुरू होते ही एक लड़ाई चलने लगती है, और वह लड़ाई होती है बढ़ते वज़न की. एक मुश्किल रास्ता जिसमें गहरे गड्ढ़े हैं, उनमें गिरने का डर हमेशा बना रहता है. और खाना तो हमें अपना गम कम करने में पूरा सहयोग करता है. इस प्रक्रिया को कहते हैं कम्फर्ट इटिंग.
खासकर मां, नानी, दादी अपना प्यार जताने के लिए कुछ ज्यादा ही बनाती-परोसती हैं. अब वह चाहे परीक्षा का समय हो या उसके बाद का टेंशन, बच्चों को ठूस-ठूस कर खिलाया जाता है. ‘खा ले बेटा, ताकत आएगी, दिमाग अच्छे से काम करेगा. पेट भरा होगा तो हर काम में मन लगेगा.’
यही शब्द सुन-सुनकर हम सब बड़े हुए हैं. मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि खाना डी-स्ट्रेस होने का एक माध्यम है. कहा जाता है कि आप जब बहुत तनाव में होते हैं तो खूब खा-खाकर मोटे हो जाते हैं. बहरहाल, खाना बच्चों का पीछा नहीं छोड़ते.
रोटी में घी लगाना, बच्चों को ठूंस कर खिलाना, तला हुआ नास्ता देना, आइस-क्रीम, चिप्स, केक, ग्लास पर ग्लास बाज़ार का जूस उनके लिए हमारे प्यार की निशानी बन गए हैं. अगर मां यह सब न करे तो क्या मां बच्चों से कम प्यार करती है!
इस तरह के धीमे जहर बचपन से बड़े होने तक मां बच्चों को अनजाने में देती है. इसे रोकने की जरूरत है. बच्चे जब पैदा होते हैं उनकी कोई ख़ास पसंद-नापसंद नहीं होती है. उनका स्वाद धीरे धीरे बनता है.
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ड्रगलेस हेल्थ केयर सेंटर की डा. नम्रता गौतम कहती हैं, “कोशिश होनी चाहिए कि हर घर में बच्चों को शुरू से ही हेल्थकेयर के बारे में जागरूक बनाया जाए. बच्चों को व्यायाम की समुचित जानकारी देना और खाने पीने की प्रति सजग रखना हमारी जिम्मेदारी है. तब जाकर नई पीढ़ी स्वास्थ्य को तवज्जो देगी. सही व्यायाम और पोषण ही असली डी-स्ट्रेस फैक्टर हैं ना कि उल्टा-पुल्टा खाना.”