साल 2014 में भ्रष्टाचार और काला धन सबसे बड़ा मुद्दा था. इन्हीं मुद्दों की घुड़सवारी कर नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री से भारत के प्रधानमंत्री बन गए. तब उनके अश्वमेघ यज्ञ रूपी लोकसभा चुनाव नतीजों ने लोगों की बोलती बंद कर दी. छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों की क्या मजाल, यहां तक कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां मोदी के रथ की धूल चाटते दिखे.
मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार का पहला एक साल तो विवाद-नये विवाद-पुन: विवाद में जैसे-तैसे निकल गया लेकिन इसका दूसरा साल ऐसा चढ़ा कि कांग्रेस युवराज राहुल गांधी हों या कम्युनिस्ट छात्र कन्हैया – सभी एक-न-एक मुद्दा लेकर मोदी को ललकारते दिखे.
मोदी का आदमकद विदेशों में जरूर सराहा जा रहा है लेकिन अपने ही देश में उन्हें आशा, प्रेम और विश्वास से देखने वालों की संख्या में कमी हो रही है. जब प्रधानमंत्री की डिग्री और उनके शिक्षा मंत्री की शिक्षा ही विवादों के चक्रव्यूह में फंस जाए तो यह हश्र तो होगा ही.
हालांकि प्रधानमंत्री के दफ्तर में उनसे मिलनेवालों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई है और ना ही मोदी की आवाज मद्धिम पड़ी है, फिर भी अब उनके भाषण में कहीं भी राशन नहीं दिखता. खास कर तब जब देश की एक चौथाई आबादी भूखी-प्यासी, गर्म और सूखी जमीन पर कराह रही है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी दिखावे के लिए ही सही कम से कम किसी लीलावती-कलावती के यहां खाना खाने या रात बिताने चले जाते थे, लेकिन केंद्र सरकार को पूर्णत: मोदी सरकार बनाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकारी फोटोग्राफरों द्वारा अब तक खिंची गई करोड़ों तस्वीरों में से किसी गरीब के घर से जलता चिराग नहीं दिख रहा.
किसानों के लिए मोबाइल ऐप उपलब्ध कराने वाले प्रधानमंत्री महोदय की सबसे बड़ी कमी है कि उन्हें नहीं पता कि मोबाइल ऐप चलाने के लिए पहले मोबाइल, फिर इंटरनेट और इन सबसे जरूरी बिजली की जरूरत होती है.
बहरहाल, नरेन्द्र मोदी का मोम का पुतला तैयार हो गया है. तो क्या हम आशा करें कि देश की परमानेंट समस्या रोटी-कपड़ा-मकान और भूख-प्यास के निदान के लिए अब उनके पुतले के सामने गुहार लगाया जाए, कि कहीं वह पिघल जाए.