भारत बोलेगा

बदल रहा है 9 टू 5 जॉब का ट्रेंड

जॉब की बात करने से पहले ये बताएं कि खानाबदोश के बारे में सुना तो होगा आपने. ये कहीं एक जगह जम कर नहीं रहते हैं. अपनी आजीविका के लिए जगह-जगह डेरा डालते रहते हैं. डिजीटल जमाने की जॉब भी खानाबदोशों की तरह हो गई है. न कोई ऑफिस और न ही 9 टू 5 का झंझट.

आप बाली में सैर करते-करते सिंगापुर की कंपनी के लिए फ्रीलांस जॉब होटल के कमरे में आराम से बैठ कर कर सकते हैं. नोएडा के अपने कमरे में आराम करते जयपुर की कंपनी का असाइनमेंट पूरा कर सकते हैं.

आज से 20 साल पहले हम ऐसा सोच भी नहीं सकते थे. एक छत के नीचे 100 कामगार या कहें कर्मचारी किसी कंपनी के लिए जॉब करते थे. लेकिन, आज इस बात के कोई मायने नहीं है कि आप कितने घंटे काम करते हैं और ऑफिस समय से आते हैं कि नहीं. नियोक्ता को मतलब है कि उसके कर्मचारी निर्धारित समय पर रिजल्ट दें.

अब तो किसी जॉब के लिए फ्रीलांसर के रुप में बेहतर टैलेंट मिल जाते हैं. ऑफिस के किराए में जो बड़ी रकम हर महीने खर्च होती है वो भी बच जाती है.

मेरे एक मित्र के दादाजी सोवियत रुस में रहते हैं. वो मुझे बराबर टोकते हैं, बेटा तुम काम क्या जॉब करते हो? ऑफिस तो जाते नहीं.

मैं उन्हें कहता हूं कि जमाना बदल गया है दादाजी, हम किसी के रडार पर रहना पसंद नहीं करते. 9 बजे ऑफिस जाओ और पूरे दिन बिजी रहो काम में. अब हम अपनी सुविधा से घर पर काम करते हैं, ट्रैवलिंग में मौका मिला तो भी काम करते हैं.

ऑफिस में खपाए गए घंटे और उत्पादकता में कोई संबंध नहीं है. ऑफिस में काम कर रहा कर्मचारी किसी काम में जहां आठ घंटे लगा सकता है, हो सकता है कि वही काम कोई फ्रीलांसर उसे चार घंटे में निबटा दे.

किसी को सुबह में काम करना पसंद है तो किसी को देर रात. कोई महीने में दस दिन ही काम करना चाहता है तो कोई घंटे के हिसाब से भी काम करता है.

हम अपने कंपनी में अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहित करते हैं कि आप अपना समय ऑफिस से बाहर इंज्वाय कीजिए. किसी पार्टी में जाइए, ट्रैवल कीजिए. हमें तो रिजल्ट से मतलब है, अगर रिजल्ट ओके है तो उन्हें जीवन को अपने ढ़ंग से जीने का पूरा हक है.

अब तो फ्रीलांसर के रुप में बेहतर टैलेंट भी मिल जाते हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऑफिस के किराए में जो बड़ी रकम हर महीने खर्च होती है वो भी बच जाती है.


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