रंग रस से भरे होते हैं और रस भाव से उत्पन्न होता है. जैसा भाव वैसा रस, और वही रंग (colour, pure heart, emotion, feeling, emotions in nature). यदि हृदय के भाव सुंदर न हों तो बाहर प्रकृति में कोई भी रंग सुंदर नहीं.
ईश्वर की कथाओं में सुनने को मिलता है कि विभिन्न रूप में भगवान (God) संपूर्ण रूप से उपस्थित हो जाते हैं. ईश्वर हमसे हृदय से प्रेम करते हैं और उस प्रेम का रस और रंग हमारे हृदय पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाता है.
यह सुनना अचंभित अवश्य करता है किंतु इसे बड़ी ही सरलता से समझा जा सकता है. दरअसल प्रकृति अपने आप में संपूर्ण है और सभी के लिए संपूर्ण रूप से उपस्थित – किसी के लिए भी कम या अधिक नहीं.
प्रकृति का यह प्रेम-भाव ही हमारे जीवन को प्रति क्षण ऊर्जा से भरता है.
हम उस प्रकृति के रंग को हर क्षण जीते हैं या यूं कहें कि उस रंग की उपेक्षा करते हुए जीते हैं और इतनी उपेक्षा करते हुए जीते हैं कि हमें उसके स्नेह का असल रंग अब दिखाई भी नहीं देता, और यदि कभी दिखाई देता भी है तो उसे स्वप्न समझ लेते हैं या एक सुखद कल्पना जो सत्य से परे है.
सोचने की बात यह है कि इस प्रकृति में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी क्या हम अपनी मानते हैं? और यदि मानते हैं तो इसके प्रेम रंग की सुंदरता पर चढ़ रही हमारे भ्रष्ट आचरण की गर्त को हटाने के लिए क्या हम इसकी संपूर्णता का बीज अपने हृदय में लगा कर संपूर्ण होने के लिए स्वयं को तैयार करेंगे?
सोचिएगा ज़रूर, तभी भारत बोलेगा!