ऐसा तो है नहीं कि पहले बुजुर्ग नहीं थे. बुजुर्ग आज भी हैं. और, कल आप भी बुजुर्ग होंगे. आजकल कहा जाता है कि बड़े शहरों में बुजुर्गों का महत्त्व कम होता जा रहा है. लेकिन, पहले भी तो राजाओं को उनके बच्चे कैदखानों में डाल देते थे. क्या औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को कैद नहीं किया?
क्या मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी के बुजुर्ग नेताओं, जैसे – लाल कृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी की अनदेखी नहीं करते? अगर भारत की राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां फिलहाल जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का ही महत्त्व नहीं है. दिल्ली के मुख्मंत्री की नजर में उपराज्यपाल का महत्त्व नहीं है.
जब दिग्गजों को अपनी इज्जत बचानी मुश्किल हुई तो आम इंसानों में से कोई बूढ़े बुजुर्गों की परवाह क्यों करे! मनोचिकित्सकों के अनुसार हमारे शहर पत्थरों के हो गए हैं, और इन शहरों में बुजुर्ग अलगाव का शिकार हो रहे हैं. बड़ी बड़ी इमारतों में आकाश चूमते ऊंचे फ्लैट्स में वे रह रहे हैं, पर बात करने वाला कोई नहीं.
क्या यह नया चलन है कि बुजुर्ग अपने जीवन की ढलती शाम में तनहा हैं? बागबान जैसी फिल्मों में यह दिखाने का प्रयास किया गया कि बुजुर्गों की स्थिति दयनीय है. बुजुर्गों को सहारा देना तो दूर, उनसे बात करने वाला भी कोई नहीं होता. अमिताभ बच्चन को तो अपना क्रिया कर्म करवाने के लिए ‘भूतनाथ’ फिल्म में भूत बन कर आना पड़ता है.
आरोप लगते रहे हैं कि बुजुर्गों के परिवार में लोग उनसे बातचीत नहीं करते हैं और न समाज उनके लिए समय निकालता है. समय पर खाना न मिलना, दवाई की व्यवस्था न होना, ध्यान रखने वाले का न होना उनकी समस्याओं में शामिल रहा है.
बुजुर्गों के हालात पर आए दिन अध्ययन और सर्वे होते रहते हैं, रिपोर्ट अखबारों में प्रकाशित होती हैं. इन सबमें उन्हें बेसहारा बताया जाता है और समाज को संवेदनहीन.
बच्चों को बुजुर्गों से और बुजुर्गों को बच्चों से हमेशा अपेक्षा क्यों? सब एक दूसरे से प्यार और अपनापन ही तो चाहते रहे हैं. असमंजस यह है कि बुजुर्ग घरों से दूर हो जाते हैं या घर उनसे छूट जाते हैं, यह समझना मुश्किल लगता रहा है.
ध्यान योग्य बात यह है कि जो आज बुजुर्ग हैं, वे कभी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होते थे, जिनसे नई पीढ़ी को संस्कृति और मूल्यों का पाठ पढ़ने-सीखने का अवसर मिला. असमंजस की स्थिति यह है कि बुजुर्ग घरों से दूर होते जा रहे हैं.
शहरों की एक दिलचस्प जानकारी यह है कि जो लोग वहां बसते हैं वे खुद अपनी जड़ों से उखड़कर आते हैं. वे संघर्ष करते हैं, उनकी आय का स्रोत कुछ ऐसा नहीं होता, जिस पर वे बहुत भरोसा कर सकें. स्थिति डरावनी तब हो जाती है जब उनके सामने अपने ही बड़े बोझ लगने लगते हैं.
यह बात केवल आज की नहीं है. कल भी ऐसा हुआ था. आगे भी होगा, अगर वर्तमान मानसिकता बरक़रार रही तो. दोष न बुजुर्गों का है ना ही परिवारों का. अपनी जगह सब ठीक हैं. लेकिन, आज के परिवेश में बुजुर्ग सिर्फ मान ही तो चाहते हैं. हम थोड़ा समय उन्हें दें, उनकी बातें सुन लें, इतने से ही वे संतुष्ट हो जाते हैं.
कुछ लोगों में अहं भी देखा जाता है जो अपने बेटे-बेटियों-बहू-दामादों को अपनी गिरफ्त में रखना चाहते हैं. कुछ फाइनेंशियल सिक्यूरिटी चाहते हैं तो कुछ अपने परिवार में सरदार होने का ओहदा. जबकि कुछ का कहना है कि बुजुर्गों को अपने अनुशासन थोपने नहीं चाहिए और बाकायदा समय के साथ चलना चाहिए.