सांकेतिक भाषा (sign language) मुझे हमेशा इतनी दिलचस्प लगी है कि मैंने एक बार इसे सीखने की कोशिश की.
मुझे इंस्टाग्राम पर सांकेतिक भाषाओं के बारे में एक कार्यशाला मिली, जिससे मैं जुड़ा भी. कार्यशाला के माध्यम से मैंने बुनियादी सांकेतिक भाषा सीखी.
शुरुआत में मुझे विश्वास हुआ कि मैं सभी मूक-बघिर लोगों के साथ संवाद कर सकता हूं. लेकिन यह विश्वास आईने के छोटे-छोटे टुकड़ों में तब टूट गया जब मैं अपने घरेलू कामगार से मिला जो गूंगा और बहरा है.
आश्चर्य की बात है कि हमारे घरेलू कामगार को उस सांकेतिक भाषा के बारे में कुछ नहीं पता है. यह कितना अजीब है न?
एक भाषा जिसे मूक और बधिर लोगों को समझाने के लिए विकसित किया गया है, उनमें से एक व्यक्ति को उस भाषा के बारे में कुछ पता ही नहीं है.
इस घटना ने मुझे उद्वेलित किया. इस सम्बन्ध में जानकारी हासिल करने के क्रम में एक आंकड़े का पता चला जिसके अनुसार सबसे विकसित समझे जाने वाले देश संयुक्त राज्य अमेरिका में 48 मिलियन (चार करोड़ अस्सी लाख) लोग बोलने-सुनने की चुनौती का सामना करते हैं. फिर भी मात्र एक प्रतिशत अमेरिकी ही सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हैं. (इस तरह का भारत का कोई डेटा मुझे नहीं मिला.)
कल्पना कीजिए कि आपको कुछ कहना है लेकिन उसे व्यक्त करने में आप असमर्थ हैं…!
तो क्या सांकेतिक भाषा एक अज्ञात विशेषाधिकार है जो समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को प्रदान किया गया है?
मैं समाज के निचले तबके के किसी भी मूक या बधिर व्यक्ति से आज तक नहीं मिला हूं जो संवाद करने के लिए सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हैं.
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज के एक वर्ग के लिए विशेष रूप से तैयार की गई भाषा उन्हें सिखाई भी नहीं जाती है.
बुर्जुआ समाज को देखना और उन्हें समाज का मान्य अंग मानना बहुत सामान्य बात है. सिर्फ इसलिए कि समाज के एक वर्ग के लोग सांकेतिक भाषा जानते हैं हम यह समझ लें कि सभी मूक और बधिर लोग इसे जानते और समझते ही होंगे?
संविधान का अनुच्छेद 19 कहता है – हर किसी को राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है. इस अधिकार में बिना किसी हस्तक्षेप के अपने विचार रखने और किसी भी मीडिया के माध्यम से और सीमाओं की परवाह किए बिना जानकारी और विचार प्राप्त करने व प्रदान करने की स्वतंत्रता शामिल है.
मुझे संदेह है कि इस लेख का उन लोगों के लिए कोई अर्थ है जिनके पास अपनी राय व्यक्त करने का कोई भी साधन नहीं है.