हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रभावशाली महिलाओं को लेकर देश भर में सर्वे होते हैं और हर बार गिनी-चुनी महिलाओं के बारे में बताया जाता है. दुनिया भर के तमाम सर्वे उन महिलाओं तक नहीं पहुंच पाते, जो समाज के सबसे निचले स्तर पर हैं और समाज को एक नई राह दिखा रही हैं.
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बादलों के तकिए से सूरज ने अभी सर उठाकर देखा ही था कि दादा जी ने आवाज लगाई. कहने लगे, आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. पेपर में कुछ लेख छपे हैं इन्हें जरूर पढऩा. इतना बोल वह कमरे में चल दिए. पर चश्मा मलते हुए चेहरे पर कुछ सवाल लिए वापस लौटे. “बेटा, समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो नि:स्वार्थ भावना से सेवा करते हैं, जो मुट्ठी भर खुशियों को भी दूसरों में बांट देते हैं और इत्मीनान से अपनी ज़िन्दगी जीते हैं.”
उनकी यह बात मेरी समझ से परे थी. उन्होनें लंबी सांस ली और फिर बोले, आज अखबार में तमाम उन शख्सियतों का जिक्र है जिनके बारे में हम अक्सर पढ़ते, सुनते और जानते आए हैं. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने वज़ूद के अहसास से लबरेज ताउम्र खुशी-खुशी बिता देते हैं, और सुर्खियों में कभी नहीं आते.
वही लोग असल पहचान के हकदार होते हैं जिन्हें कई बार पहचान मिल ही नहीं पाती है, वही लोग प्रशंसा के हकदार होते हैं. हां, वही लोग. … कुछ ऐसी ही है वह महिला. “कौन महिला दादा जी?”
“बेटा, शहर की भीड़-भाड़ से निकलते हुए रास्ता जाकर खत्म होता है गांधी अध्ययन केंद्र पर. 1952 में बना वह केंद्र आज भी सीना ताने खड़ा है. किसी जमाने में वहां गोष्ठियां हुआ करती थीं, जिनमें भाग लेने मैं अक्सर जाया करता था. आज वह अध्ययन केंद्र होने के साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग केंद्र भी है. जिसे हंस हांडा नाम की एक महिला चला रही है. गांधी जी की विचारधारा पर चलते हुए उस महिला ने पूरी ज़िन्दगी समाज सेवा में लगा दी. उसका मकसद समाज में बच्चों और महिलाओं को शिक्षित करना रहा जो उसने किया भी. आज वह औरत अपना जीवन सफल मानती हैं.”
इस बार महिला दिवस के मौके पर भी एक बार फिर से उन्हीं महिलाओं के बारे में बताया गया जिनके बारे में सब जानते हैं. उन महिलाओं के बारे में लेख क्यों नहीं छपे जो आज भी हालात बदलने की हिम्मत रखती हैं?
जिंदा रहते हैं वो लोग जिनमें हालात बदलने की हिम्मत होती है. … दादा जी की कही बातों ने एक बार सोचने पर मजबूर तो जरूर किया, लेकिन फिर ख्याल आया: सोचने पर क्यों वक्त जाया किया जाए, क्यों न उस महिला से मिल ही लिया जाए!
बेटा, गांधी जी ने कहा था कि शिक्षा वह नहीं जो किताबों से शुरू होकर किताबों में ही सिमट जाए बल्कि शिक्षा वह है जो किताबों से चलकर ज़िन्दगी में उतर जाए. यही संदेश गांव-गांव देती आई हूँ. मैंने 13 साल पानीपत के पास गांव पट्टी कल्याणा (घन्नौर) में शिक्षिका के तौर पर जीवन बसर किया. वहां से नूरमहल से सटे गांव गुमतली चली गई जहां बच्चों को 12 साल पढ़ाया. वहां मजबूरियां हर घर की कहानी थी. लेकिन फिर भी मैं हर सुबह घर-घर जाकर मां-बाप से लड़ाई करके बच्चों को पढ़ाई के लिए लेकर आती थी. उस क्लास में कोई बच्चा 5 बरस का होता था तो कोई 15 बरस का. आंखों में खुशी के आंसू … कहने लगीं, बेटा वो सब बच्चे आज अच्छे मुकाम पर हैं. मेरा जीवन सफल हुआ.
शांति सैनिक होने के नाते लोक सुधार का भी फर्ज निभाया है मैंने. शादी नहीं की, गृहस्थ जीवन से परे रही. बस गांव-गांव में महिलाओं को घर से बाहर की दुनिया का अहसास कराती रही. उन्हें जीना सिखाया, पढ़ाया-लिखाया और काम दिलवाया. गांधी जी के विचारों ने मुझे बदला और मैंने उन्हीं विचारों पर चलते हुए समाज को बदलने की कोशिश की और कामयाब भी रही. आज महिला की अपनी पहचान है इस बात की बेहद खुशी है. गांव भी तरक्की की राह पर हैं, महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर का सोचने लगी हैं जैसा कि मैं चाहती थी. अपने पैरों पर खड़ी हैं. नारी का विस्तार हुआ है. जैसे समाज की तस्वीर गांधी जी के विचारों ने मुझे दिखाई थी. वैसी ही तस्वीर तेजी से उभरती हुई नजर आ रही है.
हंस हांडा का हौसला और उसकी कहानी दोनों ही ग़ज़ब हैं. हंस हांडा ने अपनी ज़िन्दगी के 50 साल समाज सेवा में लगाए हैं और समाज को एक नई राह दिखाई है. आज 75 साल की उम्र में भी उनके कदम थमे नहीं, वह गांधी अध्ययन केंद्र की देखभाल कर रही हैं और गांधी नेशनल अकेडमी ऑफ नैचरोपैथी चला रही हैं.
वाकई जिंदा रहते हैं वो लोग जिनमें हालात बदलने की हिम्मत होती है, फिर चाहें वह ख्यालों में जिंदा रहें या विचारों में. यह लेख दादा जी के उन सवालों का जवाब है जो उनके चेहरे पर थे.
– कैफ