मेरा पहला अहसास था जब मैं पांच साल की थी. मैं अपने रेलवे क्वार्टर वाले घर के बाहर खेल रही थी. शायद किसी नए गाने में हीरोइन के डांस को दोहराने की कोशिश कर रही थी. मेरे भाई ने तब तेज़ फटकार लगाई थी – “शर्म नहीं आती बाहर नाच रही हो?”
तभी मेरी मां पीछे से आई और बोली, “बेटा, लड़कियों को ऐसे सब के सामने नहीं नाचना चाहिए. पापा आएंगे तो डांट पड़ जाएगी.”
उस वक़्त मुझे यह सब मेरे भाई की साजिश लगी, क्योंकि उसे मेरे डांस से जलन होती थी. आज जब अंबेडकर यूनिवर्सिटी के खुले माहौल में पढ़ रही हूँ तो लगता है यूनिवर्सिटी में हम सभी एक जैसे हैं.
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की कठिनाइयों को – जो एक अकेली लड़की को अजनबी शहर में मिलते हैं – मैं भूल जाती हूँ.
महिला होने का अनुभव बहुत समृद्ध है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वो ‘मां’ है, पर इसलिए भी कि ये ही बस उसकी पहचान बना कर रखने की साजिश है.
साथ ही हम कैसे भूल सकते हैं कि अनेकों महिलाएं, जो बहुत आगे बढ़ी हैं, उन्होंने हमें कितना कुछ सिखाया है, हमें सोच दी है, आवाज़ दी है. इसी बढ़ने, लड़ने, सीखने और अनगिनत जीतों का नाम है ‘महिला’ होना. – अदिति मिश्रा