आज प्रसून के लिए सब कुछ सुलभ है लेकिन वह अपनी मां का क्या करे. उसे तो नहीं बदल सकता. न स्वभाव ही और ना किसी और से. बड़ा आदमी हो गया है प्रसून, इसलिए अब उसे अपनी मां पसंद नहीं.
मां आज भी सूती साड़ी ही पहनती है. सब्जी रोटी, और भात दाल तक ही सिमटी रहना चाहती है. पिज्जा, बर्गर का जमाना है और उसे अभी भी फिजूलखर्ची बर्दाश्त नहीं.
प्रसून को लगता है जब गरीबी थी तब की बात और थी अब तो सुख से रहे. ऑफिसर की मां है और अभी तक सलीका नहीं सीख सकी.
मां को नहीं बदलना था, वह नहीं बदली. शायद इसलिए गांव चली गई और वही रहती है. वैसे भी वहां घर देखने वाला कोई है नहीं और अपने जैसे लोगों के बीच में रहेगी तो मन भी लगेगा.
शंकर ने एक बार प्रसून से कहा भी, “बाबू रे, काकी तो वैसी ही है, बदल तो तुम लोग गए हो. देखने तो एक बार आते नहीं और फोन कर हाल चाल भी नहीं पूछते. तुम्हें अब फुर्सत कहां है? तुम हो ऑफिसर, लेकिन काकी को तो मुझ पर ही भरोसा है और रहेगा. तुम लोग जीवन का मजा लो.”
लेकिन मां आज भी प्रसून के बारे में ही सोचती है. आज भी उसका कलेजा प्रसून के लिए ही धड़कता है, कोई गिला-शिकवा नहीं. सब गुनाह माफ.
मां जो ठहरी. मां तो आखिर मां है ना.
हम अपने दुःख में और सुख में खोए रहते हैं. न तो मां का आंचल याद रहता है और न ही उन गांठों को खोलकर मां का वो चवन्नी अठन्नी देना.
लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं है. हमारे बटुओं में सिर्फ झूठ है, गुस्सा है, अवसाद है, अपना बनावटी चिड़चिड़ापन है.
उनकी गांठों में आज भी सुख है, आशीर्वाद है.
(चंदन कुमार से साभार)