अपने गांव के बारे में तो मैंने ऐलान कर रखा है कि अवकाश प्राप्त करते ही मैं अपने गांव की ओर प्रस्थान करूंगा.
गांव में बसने की योजना अभी एकतरफा है, लेकिन उम्मीद है मेरी अर्धांगिनी मेरा साथ देंगी.
वैसे भी वह समय आने में अभी वक़्त है. मुझे यकीन है कि मैं इस दौरान उन्हें गांव में बसने के फायदे गिना सकूंगा.
मेरा जन्म बिहार के सिवान जिले के गोरियाकोठी प्रखंड के महम्मदपुर गांव में हुआ, जहां मैं 10-11 वर्ष की उम्र तक रहा.
प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल से ही हुई. चार दशक बाद भी स्कूल की ओर जाने वाली पगडंडियां, स्कूल के सामने का विशालकाय पीपल का बूढ़ा पेड़, जिसके नीचे हम पढ़ा करते थे – उनका हल्का स्मरण भी आंखें नम कर देता है.
वैसे तो मेरे चाचा, जिनकी छत्रछाया में मैं पला-पढ़ा, बेहद अनुशासनप्रिय शिक्षक रहे पर हम अपनी शरारतों से बाज नहीं आते थे.
गर्मी में बगीचों का चक्कर लगाना, आम-लीची-जामुन के पेड़ों के नीचे खेलते हुए पेड़ से गिरने वाले फलों पर नज़र टिकाए रखना… यह सब लगता है जैसे कल ही की बात हो.
हमारे यहां उन दिनों अच्छी खेती होती थी. मेरे गांव की मिट्टी गेंहू, मक्का, मूंग, अरहर के अलावा आलू, अदरक, गन्ना जैसे फसलों के लिए उपयुक्त थी.
बुआई से लेकर कटाई तक में हम बच्चों की अपनी हिस्सेदारी होती थी. खूब मज़ा आता था क्योंकि हमें भी इसमें छोटे-मोटे काम मिलते थे.
गन्ने से रस निकालना और गुड़ बनाने का काम हमारे यहां सर्दियों में खूब चलता था. हमारे बचपन की सुनहरी यादों में इसका स्थान सबसे ऊपर है.
हम छक कर गन्ना चूसते, गन्ने का रस पीते, रस को कड़ाह में पकाने के बाद उसको जमने से पहले गर्मा-गर्म खाते.
तब, लोगों का जो जमावड़ा लगता उसके कारण पढ़ाई से भी छुट्टी मिल जाती थी.
अपने गांव महम्मदपुर (Mahammadpur Village in Goriakothi Block of Siwan District, Bihar) में कम समय रहा लेकिन गांव जाना-आना लगा रहा.
22 वर्ष की उम्र में नौकरी लग गई. फिर, हफ़्तों नहीं जा पाता. बाद में महीनों तक नहीं जा पाता.
उसके बाद गांव में रुकने की अवधि कम होने लगी, आना-जाना भी सीमित होने लगा. पिछले 12-15 वर्षों से तो किसी विशेष अवसर पर ही गांव जाना हुआ है.
चाहे जितने लंबे अरसे के बाद क्यों ना जाना हो, गांव की उस मिट्टी पर पैर रखते ही एक पल के लिए भी नहीं लगता कि मैं इतने दिनों यहां नहीं था.
मैंने हृदय के हर कोने में गांव की एक-एक यादें संजो कर रखी हैं.
मेरा गांव दो तरफ से बरसाती नदी से घिरा है, अतः मुझे यकीन नहीं था कि मेरे गांव में भी कभी पक्की सड़क बनेगी और कभी बिजली भी आएगी.
आज खुश हूं कि मेरे गांव में बिजली भी आ गई है और बिल्कुल गांव के बीचो-बीच पक्की सड़क भी बन चुकी है.
गांव की ज़िन्दगी भी आसान हो रही है. पहले जैसी खेतीबाड़ी नहीं रही – अदरक, गन्ने की खेती अब नहीं हो पाती.
बाग बगीचे पहले जैसे नहीं रहे. वो बड़े-बड़े आम, जामुन और महुआ के पेड़ अब नहीं रहे. पर मिट्टी तो वही है, खुशबू भी वही है. लोग भी कमोबेश वही हैं.
मुझे इंतजार है अपने सेवा निवृत होने का, रिटायर होते ही गांव की छांव में अगली पारी शुरू करने का.
संजय सिंह, आसनसोल, पश्चिम बंगाल