भारत नेपाल अंतरराष्ट्रीय सीमा से कुछ सात-आठ किलोमीटर दूर पूर्वी चंपारण जिले के पताही प्रखंड में एक छोटा सा गांव है — नारायणपुर.
यह मेरा गांव है. इसके बारे में कहा जाता है कि यह देवताओं का गांव है. नारायणपुर का नाम लेने से ही सभी समस्या दूर हो जाती है.
बागमती नदी के किनारे बसा मेरा गांव बिल्कुल शांत एवं निर्मल है. नारायणपुर में सड़कें नहीं है फिर भी चलने में किसी को दिक्कत नहीं होती है. गलियां नहीं हैं लेकिन सबके घर कायदे से बने हैं और अतिक्रमण नहीं है.
सरकार की ओर से पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है लेकिन सबकी आंखों में और घरों में पानी है, और सब एक दूसरे से घुल मिल कर रहते हैं.
नारायणपुर गांव (Narayanpur village) की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि आधारित है और लोगों के पास बहुत पैसे नहीं है लेकिन दिली तौर पर यहां के लोग बेहद समृद्ध हैं.
लोगों का घर छोटा है लेकिन दिल छोटा नहीं है. विकास नहीं होने के कारण आधुनिक सुख सुविधाओं का अभाव है लेकिन मानसिक तौर पर सभी लोग आधुनिक हैं.
यही कारण है कि हाल के वर्षों तक शादी विवाह समेत किसी भी समारोह में नारायणपुर गांव के किसी भी व्यक्ति को टेंट, सामियाना बर्तन आदि के लिए सोचना नहीं पड़ता था.
लोगों के घरों से कुर्सियां, टेबल, बर्तन, दरियां, चादर, एवं अन्य सभी चीजें बिना मांगे लोग पहुंचा दिया करते थे. ऐसा लगता था मानों एक दूसरे के लिए ही लोगों ने अपने अपने घरों में इन चीजों को रखा हुआ था.
मेरे गांव का जितना सामाजिक महत्व है उतना ही इसका धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व है. धार्मिक महत्व ऐसा कि यहां प्रसिद्ध ठीकर नाथ महादेव का मंदिर है. एक और बात यह कि गांव का नाम नारायणपुर है लेकिन यह प्रसिद्ध महादेव के मंदिर के लिए है.
बताते हैं कि इस मंदिर को औरंगजेब के शासनकाल में ध्वस्त करवा दिया गया और इसका विरोध करने वाले सैकड़ों लोगों को वहां पास के कुएं में दफना दिया गया.
अतीत में खुदाई के दौरान महादेव परिवार की मूर्ति एवं शिवलिंग निकलने की बातें कही गई हैं. जब कुएं की खुदाई हो रही थी तो सैकड़ों की संख्या में उसमें से नरकंकाल निकले थे.
ऐतिहासिक महत्व यह है कि अंग्रेजी शासन काल में जब बरतानिया हुकूमत ने किसानों के खेतों में जबरन नील की खेती शुरू की तो गांव के ही एक तत्कालीन समृद्ध किसान कलाधर ठाकुर (Kaladhar Thakur) ने इसके खिलाफ आंदोलन चलाया और आखिरकार उनकी जीत हुई थी.
नारायणपुर गांव में मुख्य रूप से ब्राह्मण एवं दलित की जनसंख्या अधिक है लेकिन सब मिल जुल कर रहते हैं और आज तक कभी भी इन दोनों जातियों के बीच कोई झगड़ा नहीं हुआ.
सब एक साथ खेतों में काम करते हैं, सभी एक दूसरे के लिए खड़े रहते हैं, और मुझे लगता है कि इसका एकमात्र कारण यहां का विकास नहीं होना है.
एक तरह से देखा जाए तो प्रकृति की गोद में बसे इस गांव में चारों तरफ हरियाली है और लोग गरीब होते हुए भी संपन्न हैं. इस गांव से चार जिलों की सड़कें निकलती हैं — मुजफ्फरपुर,शिवहर, सीतामढी और मोतिहारी.
चार जिलों का टेट्राजंक्शन होने के बावजूद यहां से होकर कोई गाड़ी नहीं चलती है. एक बस सुबह में पूर्वी चंपारण जिला मुख्यालय मोतिहारी के लिए है और उसके बाद कभी भी जाने के लिए अपने पैर पर ही निर्भर रहना पड़ता है और कम से कम पांच सात किलोमीटर पैदल चलने पर पचकपड़ी से कोई सवारी मिलेगी.
गांव में बिजली का अभाव नहीं है क्योंकि भारत सरकार नेपाल को जो बिजली देती है मेरा गांव उसी रास्ते में पड़ता है. इंटरनेट, सड़क, बाजार, दूकान आदि नहीं होने के बावजूद यहां कोई सुविधा नहीं है, लेकिन बिजली की अपूर्ति है.
गांव में हरियाली होने के कारण, इसका विकास नहीं होने के कारण, फिलहाल यहां का पानी और हवा दोनों ही स्वच्छ है. कोई बीमार व्यक्ति किसी हिल स्टेशन की बजाए नारायणपुर आ सकता है.
इन असुविधाओं के बावजूद मैं अपने गांव में ही रहना पसंद करता हूं. काम काज की खोज में मुझे गांव छोड़ना पड़ा, लेकिन जब भी मौका मिलता है मैं प्रकृति की गोद में बसे इस गांव में चला आता हूं जहां मुझे सुकून का अहसास होता है.
मेरा गांव नारायणपुर मेरे लिए शिमला, कुफरी और नैनीताल जैसी जगहों से कहीं आगे है.
टी शशि रंजन, वरिष्ठ पत्रकार, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश