किसी शहरी के लिए गांव एक ऐसा एहसास है जिसके सहारे वह अपने इतिहास और संस्कार की जड़ों से अटूट रहता है.
भारत का हर गांव अपने आप में ख़ास है जो अपने वासी को हमेशा अपनी ओर पुकारता है – भले ही वह मीलों दूर जाकर बस जाए.
ऐसा ही मेरा गांव है पूवंगापराम्बु – नाम जितना ही कठिन, गांव उतना ही सुंदर और अद्भुत. ज़रा बोल कर दिखाइए – Poovangaparambu.
मेरा छोटा सा यह गांव भारत के सुदूर दक्षिण भाग के उस अनोखे क्षेत्र में स्थित है जहां आप तीन सागरों का अद्भुत संगम देख सकते हैं.
कन्याकुमारी (Kanyakumari) का यह छोटा सा गांव ही मेरा जन्मस्थल है जहां से मेरे पिता कईं वर्ष पहले नौकरी की खोज मे दिल्ली आए और बस गए.
उन्होंने दिल्ली को अपने दिल में ज़रूर बसाया, लेकिन अपनी जड़ों को वह कभी नहीं भुला पाए.
अगर यह अतिश्योक्ति नहीं तो मैं कहना चाहूंगा कि मेरा गांव किसी भी पर्यटन स्थल से कम नहीं है – जहां नज़र जाए वहां बस केले और नारियल के पेड़ और खेती ही दिखेगी जो आपको एकदम से भा जाएगी
स्कूल में लंबी छुट्टियों के बाद दोस्त बतियाते थे कि कौन कहां घूमने गया, तब मेरा जवाब हमेशा एक ही होता – मैं अपने गांव गया.
मुझे आज भी याद है कि कैसे हम हर साल गर्मी की छुट्टियों में अपने गांव जाया करते थे.
ओह…! तीन दिन का सफर और लगभग आठ राज्यों से गुज़रने के बावजूद हमें कभी थकान का एहसास नहीं हुआ.
शायद मेरा गांव मुझे पुकारता ही इतने प्यार से था. सभी गांव की तरह मेरे गांव की भी विशेषता थी कि वहां के लोग एक परिवार की भांति रहते थे जो मैंने किसी शहर में कभी नहीं देखा.
किसी घर में कोई भी विशेष कार्य हो तो मानो पूरा गांव एकजुट हो जाता – कोई हलवाई का काम करता, कोई बत्तियों से घर सजाता तो कोई आने वाले मेहमानों का विशेष ध्यान रखता.
मेरे गांव में मेरी सबसे पसंदीदा जगह थी गांव का तालाब. शहर में नलके के पानी से बाल्टी भर स्नान करने वाले इंसान को जब खुले आसमान के नीचे कलकल करते पानी में गोते लगाने का अनुभव मिलता है तो उसका आनंद आप समझ ही सकते हैं.
यह रोज़ की दिनचर्या का एक भाग था जहां हम सब भाई बहन मिलकर तालाब जाया करते थे और बेफिक्र होकर घंटों तक स्नान करके आनंद से मग्न हो जाया करते थे.
मैं भूला नहीं हूं कि कैसे शहर लौटने के दिन हमारा गांव उदास हो जाया करता था. गांव से सामान बांधकर शहर की ओर चलना आसान नहीं होता था.
आखों में मोटे-मोटे आंसू होते थे. हम सोच भी नहीं पाते थे कि कैसे वे पल झपाक से निकल गए – क्या अनमोल दिन थे वे.
वापस शहर लौटकर कई दिन तक वही सब-कुछ घूमता रहता था और मैं गिनता था … अब फिर कब चलूंगा अपने गांव की ओर.
कार्तिक, नई दिल्ली