‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब आज़ादी की लड़ाई में विकसित हुए अहिंसा और हिंसा के दर्शनों के बीच कशमकश की सामाजिक-राजनैतिक वजहों की तलाश करते हुए उन कारणों को सामने लाती है जो गांधी की हत्या के ज़िम्मेदार बने.
कह सकते हैं कि हत्या की पड़ताल भर नहीं बल्कि तत्कालीन इतिहास और राजनीति की निर्मम आलोचना भी करती है ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब.
इतिहास लिखना या इतिहास की समीक्षा करना दोनों ही चाकू की नोक पर चलने जैसा ही है. लेकिन इधर पिछले दो साल के दरमियान इतिहास लेखन की हिन्दी की दुनिया में एक अभूतपूर्व घटना हुई है.
वो घटना है हिन्दी में मौलिक इतिहासकारों का उदय. हिन्दी के उन मौलिक इतिहासकारों में ही हैं अशोक कुमार पांडेय, जिनकी इस किताब ने हिन्दी में इतिहास लेखन में पसरे अकाल को ख़त्म करने की कोशिश की है.
कश्मीर पर इनकी लिखी किताब ‘कश्मीरनामा इतिहास और समकाल’ ने भी उस धारणा को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया है कि कश्मीर और कश्मीर समस्या को जानने के लिए सबसे अच्छी किताबें अंग्रेजी में ही लिखी गई हैं.
‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब हेट फैक्ट्री, फेक न्यूज़ इंडस्ट्री और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर, भ्रम फैला कर और भ्रष्ट कर युवाओं और किशोरों को गुमराह करने वाली साजिशों को करारा जवाब है.
चाहे वो मार्क्सवादी विचारकों का जाल हो या फिर अंबेडकरवादी विचारकों का, गांधी विरोध के नाम पर जो इतिहास में धुंधलका है उसे गांधी के जीवन प्रसंग, गांधी के कथन और गांधी के प्रयोग के जरिये ही साफ और रोशन करने का काम करती है ये किताब.
गांधी-अंबेडकर विवाद, गांधी-पटेल विवाद और नेहरू-पटेल विवाद के नाम पर फैलाए गए भ्रम के धुंधलके को भी साफ करने का काम करती है ये किताब.
इस किताब की सबसे बड़ी खासियत है इसे कई सारे खंड और अध्याय में बांटा जाना. पाठक और शोधार्थी या फिर इतिहास अध्येता को अगर गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास, आजादी आंदोलन से लेकर विभाजन, गांधी हत्या से लेकर कपूर आयोग की रिपोर्ट या फिर उस कालखंड की कोई भी जानकारी चाहिए तो अपने हिसाब से किताब के उस खास अध्याय में जाकर अपनी जानकारी हासिल की जा सकती है.
आश्चर्यजनक तो यह है कि कई खंडों में बंटे रहने के बाद भी शुरू से लेकर अंत तक यह किताब एक सूत्र में बंधी हुई है. हर सिरा दूसरे सिरा से जुड़ा हुआ, मतलब दोनों ही स्तर पर किताब ठोक-पीट कर लिखी गई है.
इस किताब के एक खंड का नाम है – अहिंसा और हमलों के बीच निर्भय जीवन: जनवरी 1948 से गांधी पर हुए हमले. इसी खंड में एक अध्याय है – जाति-नस्ल-निष्ठा और गांधी. इस अध्याय को लेखक ने प्रभाव से मुक्त होकर ठोस समीक्षा के रूप में प्रस्तुत किया है जिसमें व्यक्तिगत आभा से परे तर्क के साथ और हर विचार के आइने में गांधी की समीक्षा की गई है. यही लेखक की और इस किताब की प्रमाणिकता है.
‘सवाल पूछे जाते हैं और पूछे जाने चाहिए कि गांधी क्यों दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों के साथ उनकी मुक्ति की लड़ाई में शामिल नहीं हुए? लेखक इसका जवाब खुद गांधी के बयान और गांधी की मेजबान रही मुरियल लिस्टर के 1932 में प्रकाशित संस्मरण ‘इंटरटेनिंग गांधी’ में गांधी के एक वक्तव्य को उद्धृत करते हुए देते हैं – गांधी क्यों अफ्रीका में अंग्रेज़ों के साथ थे और फिर कैसे ब्रिटिश सरकार के साथ रहते हुए भी उन्होंने कहा कि राज्य के साथ रहकर भी मैं राज्य का सहयोग नहीं कर सकता!
इस किताब के लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “यह भी कोई संयोग नहीं है कि अमेरिकी ब्लैक आंदोलन के नेता मार्टिन लूथर जूनियर और अफ्रीकी जनता की मुक्ति के सबसे बड़े नेता नेल्सन मंडेला ने गांधी को मॉडल की तरह सम्मान दिया, और उन्हीं के अहिंसक नीतियों से मुक्ति संग्राम लड़ा.”
वहीं जाति और दलित के सवाल पर लेखक गांधी को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि उनका मानना था कि दलित हिन्दू समाज का हिस्सा हैं और उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देना हिन्दुओं को बांटने की साजिश है.
अशोक कुमार पांडेय की किताब गांधी हत्या पर लिखी किसी अंग्रेजी किताब से इस मायने में उल्लेखनीय है कि इसमें कपूर आयोग के रिपोर्ट के हवाले से जो पुणे और दिल्ली पुलिस की शिथिल जांच और लापरवाही के पीछे के राजनीतिक कारणों को सवालों के दायरे में घेरा है, वो सच में सिर्फ साहसिक अभिव्यक्ति नहीं बल्कि इतिहास की निर्मम समीक्षा और आलोचना भी है.
लेखक के अनुसार पुलिस का सांप्रदायीकरण उस समय से लेकर आज तक सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में एक बड़ी बाधा बना हुआ है, जिसका फायदा उठाकर षडयंत्रकारी गांधी हत्या करने में सफल हुए.
सोचने की ज़रुरत है कि आखिर किस वजह से 20 जनवरी को गांधी की प्रार्थना सभा में बम धमाके के बाद भी पुलिस और सरकार गांधी की सुरक्षा को लेकर लापरवाह बनी रही. गांधी हत्या कोई वैचारिक उन्माद में की गई तात्कालिक हिंसक प्रतिक्रिया भर नहीं थी बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में एक गंभीर और सुनियोजित राजनीतिक षडयंत्र शामिल था जिसे बिल्कुल माफियोसी अंदाज़ में प्रोफेशनली अंज़ाम दिया गया.
30 जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर कर दी गई थी.