करीब 350 वर्ष पहले मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले आए थे. तब दिल्ली का चांदनी चौक आबाद हुआ था. तभी यहां परांठेवाली गली का वजूद भी आया.
उन्हीं दिनों से यह गली परांठों के शौकीनों को लुभाती रही. इस गली की पहचान घी की तेज खुशबू से होती थी. अब और पतली हो चली परांठेवाली गली इठलाती नहीं है. बस लोग यूं ही चले आते हैं.
पुरानी बिल्डिंग कोई बची नहीं. ऊपर देखो तो मोटे-मोटे काले पुराने बिजली के तार डराते हैं.
140 वर्ष पुराने ‘गयाप्रसाद शिवचरण’ दुकान पर बैठे राजीव शर्मा बताते हैं, “हमारे पुरखे आगरा के रहने वाले थे. उन्होंने सन 1872 में इस दुकान को शुरू किया था. यहां सभी दुकानें एक ही कुटुंब की हैं.” उनकी दुकान में परांठा बनाने वाले भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही काम कर रहे हैं.
उनके बाजू वाली परांठे की दुकान ‘कन्हैया लाल प्रसाद दीक्षित’ पांच पीढ़ियों से परांठे सेंक रही है. 1875 में स्थापित इस दुकान पर आज गौरव शर्मा बैठते हैं. वह कहते हैं: “हम अपने बगल वाले के कुटुंब नहीं हैं.”
यहां दुकानों में एक ट्रेंड है — बड़े नेताओं और हस्तियों के फोटो लटका-कर अपनी मूंछ ऊंची करने का. किसी दुकान में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी तो कहीं अमिताभ बच्चन, सलमान खान, अक्षय कुमार. एक दूकान में रणबीर कपूर भी परांठे खाते दिख सकते हैं. दरअसल यहां मात्र चार दुकानें ही रह गई हैं और कंटेस्ट जबरदस्त है.
‘बाबू राम परांठे वाले’ की दुकान पर काम कर रहे एक मजदूर का कहना है कि फोटो लगने से यह साबित नहीं होता कि हस्तियाँ यहां आती ही होंगी. यह तो सिर्फ कमाई का जरिया है. इस दूकान के सामने वाले गोलगप्पे के दूकान से पता चला कि ‘बाबू राम परांठे वाले’ लगभग 40 साल पहले साड़ी बेचने लगे थे. पर अब पिछले कुछ वर्षों से फिर से परांठे सेंक रहे हैं.
‘गयाप्रसाद शिवचरण’ के राजीव शर्मा कहते हैं कि 1984 में एक परांठे का दाम 75 पैसा था. लेकिन अब महंगाई बढ़ने के साथ 100 ग्राम वजन के प्रति परांठे के 30 रुपये लिए जाते हैं. हां, साथ में कुछ सब्जियां और चटनी भी मिलती हैं. यहां तरह तरह के पराठे उपलब्ध हैं — सभी बिना प्याज-लहसुन के, शुद्ध शाकाहारी.
देखने से तो लगता है परांठेवाली गली में परांठे बनाने की परम्परा को भविष्य में बनाये रखने की कोशिश ज़ारी है. गौरव शर्मा कहते हैं, “हमें गर्व हैं हम परांठे वाले हैं. इस परंपरा को हम आगे भी बनाए रखेंगे.” उन्हीं की दुकान में बैठे एक दम्पति से बतियाने से पता चला कि उन्हें पता भी नहीं था कि वे किसी मशहूर परांठेवाली गली में बैठे थे. “हम तो पास से गुजर रहे थे. भूख लगी तो किसी ने बताया कि इस गली में खाने की दुकाने हैं. सो हम चले आये.”
परांठेवाली गली की सिर्फ चार दुकानें चांदनी चौक के अंधेरे में कितनी रौशनी कर पाएंगी पता नहीं. साफ़-सफाई के नाम पर यहां कुछ भी नहीं. स्वाद भी बस काम चलाने लायक ही. छोटे छोटे बच्चों के हांथो से पानी पीना भी नहीं भाता यहां. बैठने की पर्याप्त जगह भी नहीं. खड़े होकर यहां खा नहीं सकते क्योंकि जगह ही नहीं है. एक परंपरा भर चल रही है जिसे हमें जिन्दा रखना होगा.