विश्व भर में 24 करोड़ बच्चे, यानी हर 10 में से एक बच्चा – विकलांगता की अवस्था में रह रहे हैं और स्वास्थ्य, शिक्षा व संरक्षण समेत बाल कल्याण के अधिकतर पैमानों पर, आम बच्चों की तुलना में बहुत पीछे हैं.
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (UNICEF) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार यह आकलन विकलांगता की समावेशी व एक ज़्यादा अर्थपूर्ण समझ पर आधारित है.
यूनीसेफ़ की कार्यकारी निदेशक हैनरीएटा फ़ोर की चिंता यह है कि “शिक्षा की सुलभता से लेकर, घर पर रहकर शिक्षा हासिल करने तक; विकलांग बच्चों को लगभग हर पैमाने में शामिल किये जाने या सुने जाने की सम्भावना कम ही है.”
विकलांग बच्चों को पीछे छूटने दिया जा रहा है
रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि विकलांगता के साथ रह रहे बच्चों को समाज में पूर्ण भागीदारी के लिये अनेक अवरोधों का सामना करना पड़ता है. इसके अक्सर नकारात्मक स्वास्थ्य व सामाजिक नतीजे दिखाई देते हैं.
बिना विकलांगता के बच्चों की तुलना में, विकलांगता की अवस्था वाले बच्चों को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है:
- उनमें बुनियादी गणना और शिक्षा हासिल का कौशल होने की सम्भावना 42 फ़ीसदी कम होती है
- पूर्ण रूप से विकसित ना हो पाने की सम्भावना 25 प्रतिशत अधिक, और नाटेपन का शिकार होने की सम्भावना 34 फ़ीसदी अधिक होती है
- श्वसन तंत्र के संक्रमण के लक्षण सामने आने की सम्भावना 53 प्रतिशत अधिक होती है
- कभी स्कूल ना जा पाने की सम्भावना 49 फ़ीसदी ज़्यादा होती है
- प्राथमिक स्कूल के दायरे से बाहर होने की 47 प्रतिशत ज़्यादा सम्भावना, निम्नतर-माघ्यमिक स्कूल से बाहर रह जाने की सम्भावना 33 फ़ीसदी अधिक होती है, जबकि उच्चतर माध्यमिक स्कूल से बाहर रहने की सम्भावना 27 प्रतिशत अधिक है
- अपने साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार महसूस करने की सम्भावना 41 प्रतिशत अधिक है
हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक़ विकलांगता के अनुभव में भिन्नताएं देखने को मिलती हैं, और विकलांगता के प्रकार, रहने के स्थान, सेवाओं की सुलभता से भी इस अवस्था के कारण उत्पन्न जोखिमों और नतीजे प्रभावित होते हैं.
ऐसे में ज़रूरी है कि यूनीसेफ़ अपने साझीदार संगठनों के साथ मिलकर, वैश्विक व स्थानीय स्तर पर विकलांग बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रयास दोगुना करे.
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2015 में अपने रेडियो संबोधन ‘मन की बात’ में कहा था कि शारीरिक रूप से अशक्त लोगों के पास एक ‘दिव्य क्षमता’ है और उनके लिए ‘विकलांग’ शब्द की जगह ‘दिव्यांग’ शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. तो क्या यह कहना बेमानी नहीं? केवल शब्द बदलने मात्र से ही विकलांगों के साथ होने वाले व्यवहार के तौर तरीके में कोई बदलाव आएगा? ‘दिव्यांग’ शब्द के इस्तेमाल से विकलांगों को बहिष्कार और हाशिए पर रहने से बचाया नहीं जा सकता. इसके विपरीत, ये केवल सहानुभूति और दान की भावना को ही दर्शाता है.
हर देश की सरकार को भी चाहिए कि बच्चों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर, उनकी आवाज़ भी सुनी जाए और उन्हें अपने अधिकारों व सम्भावनाओं को साकार करने के अवसर मिलें.
वास्तविक समस्या तो यह है कि हम बच्चों को अक्सर नज़रअंदाज करते हैं, और उनके सवालों को अहमियत नहीं देते.
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